शहीद मुल्क का मुमताज़ मैं भी बन जाऊँ, वरक़ वरक़ पे मेरी दास्ताँ सुना दे तू, सलीम बस्तवी अज़ीज़ी,,,,,,


अनुराग लक्ष्य, 3 अगस्त
मुम्बई संवाददाता ।
ज़िंदगी जब उदास होती है,
कोई साया क़रीब होता है ।
सबको सब कुछ तो मिल नहीं सकता,
अपना अपना नसीब होता है ।।
जी हाँ यह उतना ही सच है जितना कि यह चमकते चाँद और सूरज, जो अपनी चमक कभी नहीं खो सकते।
यह दुनिया जब तक कायम रहेगी, साहित्य और अदब हमेशा समाज को नई राह दिखाते रहेंगे।
मेरे ख़ुदा यह करिश्मा ज़रा दिखादे तू,
वतन के वास्ते मुझको ज़रा जगा दे तू ।
शहीद मुल्क का मुमताज़ मैं भी बन जाऊँ,
वरक वरक पे मेरी दास्ताँ सुना दे तू ।।
देखा जाए तो साहित्य और अदब की भूमिका समाज में हमेशा सार्थक रही है। दिलों को जोड़ने की बात की है, साथ ही सरहदों की खाई को भी पाटने का काम किया है। इसी फेहरिस्त में पिछले 25 वर्षों से पूर्वांचल के शायर सलीम बस्तवी अज़ीज़ी ने यही भूमिका निभाई है। प्रस्तुत है आज उनकी एक मशहूर ग़ज़ल,,,,
1/ मेरे खुदा मुझ्पे तेरा एहसान बहुत है
जो भी दिया, जितनी भी दी पहचान बहुत है ।
2/ मैं क्या करूंगा दुनिया की दौलत समेट कर
पैरों में ज़मीं सर पे आसमान बहुत है ।
3/ ख्वाहिश है जिसको चांद सितारे की उसको दे
ज़िंदा रहे दिल में मेरा, ईमान बहुत है ।
4/ मैं खौफ ज़दा क्यों रहूं, दुनिया के सामने
मालिक मेरे तू मेरा निगहबान बहुत है ।
5/ खुल्द ए बरीं के वास्ते है शर्त यह सलीम
इश्क ए नबी में तड़पे मेरी जान बहोत है ।