“ज़िन्दगी क्या है?”
एक सवाल जो जितना सरल लगता है, उतना ही पेचीदा है इसका उत्तर। कभी यह एक मुस्कान में सिमटी होती है, तो कभी एक आँसू में बह जाती है। दरअसल, ज़िन्दगी कोई भविष्यवाणी नहीं, बल्कि एक उधार लिया हुआ पल है — जो हमारे पास अभी है, बस इसी क्षण तक।
हम इंसान भविष्य के पीछे भागते हैं, जैसे वो कोई मंज़िल हो। और जब बीते कल की परछाइयाँ दिल पर दस्तक देती हैं, तो पछतावा हमारे चेहरे पर उतर आता है। इस दौड़ में हम जो सबसे कीमती चीज़ खो देते हैं, वो है “आज” — वही आज जो हमें जीने का अवसर देता है।
हम भूल जाते हैं कि हर धड़कन, हर साँस एक उपहार है — किसी अदृश्य समय की कृपा जो कब थम जाए, कौन जानता है? तो फिर क्यों ना जिया जाए खुलकर — बिना अफ़सोस, बिना प्रतीक्षा के?
कभी किसी की हँसी में अपने ग़म भुला देना चाहिए,
तो कभी किसी आँसू में उम्मीद ढूँढ़नी चाहिए।
हर गलती में सबक छुपा होता है,
बस नज़रें दोष से हटाकर अनुभव की ओर करनी होती हैं।
क्यों ना आज को इस तरह जिएँ जैसे यह अंतिम दिन हो?
अंतिम हँसी, अंतिम दुआ, अंतिम आलिंगन की तरह।
क्योंकि हो सकता है कि अगली सुबह न आए,
या आए भी तो वैसी न हो जैसी आज है।
जो लोग जीना जानते हैं, उनके लिए हर पल खुद एक ज़िन्दगी बन जाता है।
तो चलिए, इस पल को थाम लीजिए,
उसे सिर्फ़ जिए नहीं — पूरी तरह महसूस कीजिए।
यही ज़िन्दगी है। यही सच है।
नेहा वार्ष्णेय. दुर्ग छत्तीसगढ़