है मेरे साथ मेरे शहर में हिन्दू भाई, दिल के दरिया की हर इक लहर में हिन्दू भाई,,,,,सलीम बस्तवी अज़ीज़ी

अनुराग लक्ष्य, 24 जुलाई
मुम्बई संवाददाता।
कुदरत ने हज़ारों साल पहले पहाड़ों की बुलंदी झरनों के तबस्सुम कलियों की मासूमियत और फरिश्तों के नूर को इकट्ठा कर के जिस मुकद्दस रिश्ते को जन्म दिया था, उसी का नाम है इंसानियत, लेकिन अफसोस सद अफसोस आज सबसे ज्यादा खतरे में वही है, जो सारे धर्म और मज़हब से ऊपर है। इसी सच्चाई और हकीकत को आपसे रू बरु कराने के लिए मैं Saleem Bastavi Azizi, आज कुछ अपने चुनिंदा अशआर लेकर आपकी खिदमत में हाज़िर हो रहा हूं।
1/ है मेरे साथ मेरे शहर में हिन्दू भाई,
दिल के दरिया की हर इक लहर में हिन्दू भाई ,
तुम उसे कुछ भी कहो मैं तो कहूंगा अपना,
मेरी रातों के हर इक पहर में हिन्दू भाई,,,
2/ मुहब्बत को फिज़ाओं में चलो हम आम कर डालें
जो तूफाँ हैं ज़माने में उन्हें गुलफाम कर डालें
जिन्होंने ज़िंदगी का अक्स भी देखा नहीं अब तक
चलो यह ज़िंदगी अपनी उन्हीं के नाम कर डालें,,
3/ कभी ज़माने में ऐसा भी कोई यार मिले
वफा के नाम पे हर रोज़ उससे प्यार मिले
गरीब मैं सही मेरा शहर न गरीब रहे
हमारे हाथों को कोई ऐसा कारोबार मिले,,,
4/ इजाज़त देती है जब मां तो दुनिया घूम लेता हूं
भुलाकर दर्द ओ गम सारे खुशी से झूम लेता हूं
हुआ मालूम जबसे मां के कदमों में ही जन्नत है
सुबह उठते ही अक्सर पांव मां के चूम लेता हूं,,,
5/ या रब दर ए हबीब का सदका मुझे भी दे
खुल्द ए बरीं को जाय जो रस्ता मुझे भी दे
माना कि गुनहगार हूं, बदकार हैं बहुत
गर हो सके ज्यारत ए काबा मुझे भी दे,,,,
6/ हम न हारे थे, हम न हारे हैं
अब भी दामन में कुछ शरारे हैं
नफरतें रोज़ हार जाती हैं
हम मुहब्बत के ऐसे धारे हैं,,,
7/ किसी पे ऐतबार फिर से किया,
ज़िंदगी तार तार फिर से किया,
आओ तदफ़ीन करो मुझको सलीम,
उसने मुझको मज़ार फिर से किया,,,
,,,,,,,, सलीम बस्तवी अज़ीज़ी,,,,,,,,