आज भी दिल है कि उस बुत का तमन्नाइ है,
कैसे मैं कह दूँ भला उसको वो हरजाई है।
कोई भी रिश्ता नहीं इसके सिवा दुनिया में,
मैं तमाशा हूँ और दुनिया तमाशाई है।
साथ क्यों हक़ का दिया,क्यों नहीं बातिल से डरे,
मैंने ऐसे भी गुनाहों की सज़ा पाई है।
आज बरसी थी मेरे तर्के तल्लुक़ की तो फिर,
क्यों तेरी याद सताने को चली आई है।
हिफ़्ज़-ओ-आमान में रखना मुझे ऐ मेरे ख़ुदा,
उसने फिर झूठी मेरे सर की क़सम खायी है।
कैसे लौटा दूँ उसे,साथ न जाऊँ उसके,
मौत बन ठन के जो सरहाने चली आई है।
उसने नोटो से भरा बैग मुझे भेजा है,
मेरे नाकाम मुहब्बत की ये भरपाई है।
आप के बस में नहीं है कि बने आप नदीम,
आप की बातों में वैसी कहा गहराई है।
नदीम अब्बासी “नदीम”
गोरखपुर।।