गोरखपुर के यशस्वी कलमकार डॉ विजय प्रताप शाही की सक्षम लेखनी से भारतीय जनमानस के आराध्य, अनन्य राम भक्त, पवन पुत्र हनुमान जी के जीवन वृत्त पर चौपाई, दोहा, सोरठा छंदाधारित काव्य कृति *श्री हनुमंत प्रकाश* प्राप्त हुई। छप्पन पृष्ठों, चार सर्गों का यह लघु खंडकाव्य अति विशिष्ट बन पड़ा है। कवि ने लोकमंगल की कामना को ही इस आध्यात्मिक कृति का हेतु बताया है। प्रथम सर्ग में, मंगलाचरण के रूप में प्रथम पूज्य भगवान श्री गणेश, ज्ञान मूर्ति सदगुरु, मां बागेश्वरी, भगवान गौरी शंकर, कलयुग आधार प्रभु श्री सीताराम व पुस्तक के प्रतिपाद्य पवनसुत की अप्रतिम अलौकिक आराधना, एक-एक पृथक सोरठा छंद के माध्यम से की गयी है। इनका अवगाहन करते ही विषय वस्तु की सार्वभौमिकता, कवि की प्रखर भक्ति भावना, कथ्य की प्राजंलता, शिल्प का सौष्ठव, सब कुछ दर्पण की तरह स्पष्ट झलकने लगता है। हृदय स्वत: श्रद्धा एवं साहित्य के आगामी सिंधु में गोते लगाने के लिए आतुर हो उठता है। एक झलक आपके लिए..
*वंदहुं बारंबार, गुरु पद पारस मनहिं मन,*
*करहिं जगत उजियार, हे सत साधक सहज बढ़ि।।*
पुस्तक में चौपाइयों के पश्चात एक दोहे का क्रम चार चरणों एवं 51 दोहों तक विस्तारित है, जिसका हनुमत भक्त जनमानस, पूजा करते समय, एक घंटे की अवधि में सहज ही पठन, अवगाहन कर आध्यात्मिक लाभ प्राप्त कर सकता है। लोक जीवन में प्रयुक्त अवधी भाषा में रचित यह कृति, संप्रेषणीयता की दृष्टि से अत्यंत सरल, सरस एवं प्रवाहमान है। कहीं-कहीं तो इसके अंग- उपांग तुलसीकृत श्री रामचरितमानस के ही अंश प्रतिबिंबित होते हैं यथा
*दिन दिन बढ़ै, तेज बल दूना, बुद्धि और कौशल चौगूना* *करै बाल कपि कौतुक ऐसे फूंकि पहाड़ उड़ावहिं जैसे।।*
प्रथम चरण में पिता केसरी व मां अंजनी के आंगन में पवन पुत्र के जन्म एवं बाल लीला का दिव्य वर्णन अभूतपूर्व बन पड़ा है।
*चैत्र शुक्ल, शुभ पूर्णिमा, मंगल प्रातः काल,*
*मेष लग्न चित्रा नखत, प्रगटहिं अंजनि लाल!*
बाल्य काल में बड़े-बड़े कौतुक करने वाले कपि की बाल सुलभ चेष्टाएं भी कवि की पैनी दृष्टि से ओझल नहीं हो सकी।
*गदा विश्वकर्मा से पावा,*
*यह उपहार अधिक मन भावा।।*
द्वितीय चरण में भगवान के धरा पर अभ्युदय का लक्ष्य इन पंक्तियों में पढ़कर सृजन की सार्थकता पर विश्वास सहज ही सुदृढ़ हो जाता है।
*जब-जब होहिं विलोपित धर्मा, छीजहिं संस्कार सत्कर्मा।।*
*अत्याचार अधर्म अनीती, कुत्सित कृत्य कुबुद्धि कुरीती।*
प्रभु श्री राम के जन्म की शुभ बेला का वर्णन भी उतना ही मनोहारी बन पड़ा है।
*चैत्र शुक्ल नवमी तिथि, नखत पुनर्वस काल।*
*कर्क लग्न मध्याह्न शुभ, आवहिं दीनदयाल।।*
धनुष भंग में असफल राजाओं को जनक राज द्वारा धिक्कारे जाने पर, लखन लाल की गर्वोक्ति सहज ही चित्ताकर्षित कर लेती है।
*जहां एक रघुवंशी होई, अनुचित बात करै नहिं कोई।।*
पवनसुत की उनके आराध्य से भेंट, उभय के साथ-साथ पाठकों को भी भाव विह्वल करने वाली है।
*हनुमत अति विह्वल भयो, रघुपति भाव विभोर।*
*अंकवारी भरि भरि नयन, हिरदय करहिं ॲंजोर।।*
लंका दहन पर बजरंगी का रौद्र रूप भी दृष्टव्य है।
*लाल लपट विकराल विशाला, अट्टालिका जरावहिं ज्वाला।*
शिल्प की दृष्टि से यह काव्य कृति अत्यंत समृद्ध प्रतीत होती है। यथोचित स्थलों पर समस्त नौ रसों का समुचित समाहार है। अनुप्रास, उपमा, रूपक व अन्य शब्दार्थालंकारों का सहज प्रयोग परिलक्षित होता है। प्रयोग की दृष्टि में कहीं भी अनावश्यक चेष्टा नहीं दिखायी पड़ती।
*अति अद्भुत अति अद्वितीय, बिपुल बीर बलवान।*
*मांगि अशीष गिरीश पुनि, करहुं हेतु प्रस्थान।।*
शक्ति से मूर्छित लक्ष्मण हेतु संजीवनी लाने गये बजरंगबली के विलंबित होने पर व्याकुल रघुनाथ की दशा हृदय को द्रवित कर जाती है। यहां भी आनुप्रासिक छटा शिखर छू लेती है।
*विपति विचारि विचारि विलंबा, रक्ष रक्ष जगती जगदंबा।*
*लगहिं शक्ति सौमित्र हिय, कपिदल अबल अधीर।*
*दौड़हिं विलखि विक्षिप्त मति, गिरत परत रघुवीर।।*
मर्माहत करने वाली उपरोक्त पंक्तियाॅं प्रस्तर हृदय को भी विचलित करने का सामर्थ्य रखती हैं। राम रावण युद्ध के समय भाषा, भाव, भंगिमा सब परिवर्तित हो जाती है।
*लड़हिं धुरंधर रूप प्रचंडा, डोलहिं धरा फटहिं ब्रह्माण्डा।*
*युद्ध भयंकर अति घनघोरा, गगनहिं होहिं ॲंन्हार ॲंजोरा।*
श्री रामचरितमानस की तरह यह लघु ग्रंथ भी धर्मोपासकों, अध्येताओं, एवं साधकों के समस्त मनोरथों को पूर्ण करने वाला, समुचित शांति एवं सद्गति प्रदान करने वाला है।
*भय विपत्ति बाधा हरहिं, राम नाम सत्संग।*
*करहिं मनोरथ पूर्ण सब, महावीर बजरंग।।*
अंतिम पृष्ठ पर रामदूत के प्रति चार पंक्तियों का अनुपम छांदस मुक्तक, भक्ति एवं समर्पण से परिपूर्ण, पूजा में प्रतिदिन उपयोज्य दोनों आरतियां भी विलक्षण हैं।
इस दैवीय लघु ग्रंथ को साहित्य एवं आध्यात्म में सर्वोच्च स्थान की कामना करता हुआ गौरवान्वित एवं सम्मानित अनुभव कर रहा हूं। श्री हनुमंत प्रकाश का प्रकाश चतुर्दिक प्रकीर्णित हो। जय श्री हनुमान। जय जय श्री हनुमंत प्रकाश।
*हरि नाथ शुक्ल’हरि’ सुलतानपुर 8840082419*