लोहे जैसा मज़बूत

*”लोहे जैसा मज़बूत”*

मैंने जब-जब उसे देखा,
लोहे जैसा मज़बूत देखा।
ना चेहरा थका,
ना होंठ काँपे,
ना आँखों में कोई शिकवा दिखा।

हर रोज़ जंग से जूझता,
हर शाम जीत कर लौटता,
मगर न किसी जीत का घमंड,
न किसी हार का रोना।

लोग समझे —
“इसे कुछ फर्क नहीं पड़ता।
ये तो पत्थर है!”
पर मैंने जाना,
उसके हर मुस्कान के पीछे
एक समंदर रोता है।

वो सबका सहारा बना रहा,
पर खुद अकेले भीगता रहा।
कोई कांधा माँगे,
तो अपने आँसू छुपा लेता,
जैसे कहता हो —
“मैं तो ठीक हूँ… तू बता?”

वो हँसता था जैसे ज़िन्दगी एक खेल हो,
मगर उसकी आँखें चुपचाप
थकन की कहानी कहती थीं।
मैंने जब-जब उसे देखा,
लोहे जैसा मज़बूत देखा…
और हर बार,
अंदर कहीं खुद को थोड़ा और
टूटता हुआ पाया l

नेहा वार्ष्णेय
दुर्ग छत्तीसगढ़