_वो अपने आप को बस इस लिये इतना उबाले हैं,_
_दुआ पढ़ पढ़ के उन की हर मुसीबत हम जो टाले हैं।_
_कदम बोसी को जिनके इस क़दर बेचैन है दुनिया,_
_किसी से पूछ लो वो सब हमारे दर के पाले हैं।_
_कोई जो दूसरा होता तो अब तक मर गया होता,_
_यही क्या कम है जो हम अब तलक खुद को सम्भाले है।_
_जहां की खाक़ मल कर इस क़दर इतरा रहे हो तुम,_
_यक़ी मानो उसी बस्ती के हम भी रहने वाले हैं।_
_इसी से कर लो अन्दाज़ा सफ़र में हम पे क्या गुज़री,_
_अटा है धूल से सारा बदन तलवों पे छाले हैं।_
_किसी की ज़िद पे कमरे को हम अपने कैसे दिखलाऐं,_
_जहां यादों के जुगनू और बस मक़डी के जाले हैं।_
_नदीम आखों में इनके खौफ़ न दहशत है चेहरों पे,_
_ये आशिक़ जाने किस बस्ती के मौला रहने वाले हैं।_
*नदीम अब्बासी “नदीम”*
*गोरखपुर।।*