*चेहरे की हँसी और दिल की खामोशी*
हर किसी को बस हँसता हुआ चेहरा चाहिए — मुस्कान, जो उन्हें यह यकीन दिला दे कि सब कुछ ठीक है। लेकिन कोई ये नहीं देखता कि उस हँसी के पीछे कितनी चुप्पियाँ, कितनी टूटी उम्मीदें, और कितनी देर तक रोया गया मन छिपा हुआ है।
दुर्भाग्य यह है कि जब भी इंसान टूटता है, वह औरों की तरह शोर नहीं करता। वह बस चुप हो जाता है। और इस समाज में — जहाँ चुप रहना कमजोरी समझा जाता है — उस टूटे इंसान को और तोड़ दिया जाता है। लोग उसे सहारा नहीं देते, उसकी चुप्पी के पीछे के दर्द को नहीं पढ़ते, बल्कि उल्टे सवाल करने लगते हैं – “इतना शांत क्यों हो?”, “इतना बदल गए हो?”, “ये कपड़े क्यों पहने हैं?”, “चेहरा मुरझाया क्यों है?”
कोई ये नहीं पूछता – “तुम सच में कैसे हो?”, “क्या कुछ चाहिए तुम्हें?”, “क्या कुछ ऐसा है जो तुम्हारे लिए कर सकूं?”
कुछ लोगों को हम उम्मीद से देखते हैं कि वो समझेंगे। लेकिन अफसोस! अक्सर वही लोग हमारी पीठ पीछे बातें बना जाते हैं, और सामने मुस्कुरा कर सिर्फ औपचारिकता निभाते हैं। कोई गले नहीं लगाता, और अगर लगाता भी है, तो साथ में लांछनों की तलवार चुभो देता है।
यह लेख उन सभी लोगों के लिए है, जो अंदर से टूटे हैं, मगर बाहर से मुस्कुरा रहे हैं। जो हर दिन खुद को समेटते हैं, सिर्फ इसलिए कि दुनिया को अपना दर्द न दिखा सकें। ये दुनिया शायद कभी नहीं समझेगी, लेकिन आप ये जरूर समझ लें — आपका दर्द भी अहम है, आपका मौन भी आवाज़ है, और आपका अस्तित्व भी प्रेम और सम्मान के योग्य है।
कभी-कभी सबसे ज़रूरी होता है खुद को समझना — और खुद को थामना। क्योंकि जब दुनिया से अपनापन न मिले, तब खुद का हाथ थामना ही सबसे बड़ी ताक़त होती है।
नेहा वार्ष्णेय
दुर्ग छत्तीसगढ़