तबीयत से झगड़ना चाहिये था,
तुम्हें हद से गुज़रना चाहिये था।
नही था प्यार तो ख़ामोश क्यों थे,
तुम्हें उस दिन मुकरना चाहिये था।
वफ़ा का ये बदल,अब सोचता हूं,
मुझे कुछ कर गुज़रना चाहिये था।
दुआ क्या ख़ाक देंगे जाम-ओ-मीना,
मुझे पी कर बहकना चाहिये था।
चिढ़ाना ही अगर था आईने को,
तुम्हें थोड़ा सवारना चाहिये था।
बहुत नज़दीक तक मैं आ गया था,
तुम्हें भी आगे बढ़ना चाहिये था।
नदीम अब ख़ुद को वो कितना झुकाता,
तुम्हें भी थोड़ा झुकना चाहिये था।
नदीम अब्बासी “नदीम”
गोरखपुर॥