अक्सर हम गरीबी का संबंध अर्थ से ही जोड़ते हैं। आर्थिक गरीबी का मतलब है कि जिसे जो मिलना चाहिए वह नहीं मिल पा रहा है। पर यदि हम नजर दौड़ाएं तो मानव जीवन के हर क्षेत्र में कुछ लोग आवश्यक चीजों से वंचित दिखाई पड़ते हैं। इसीलिए उन्हें इन क्षेत्रों में गरीब ही माना जाएगा। सांस्कृतिक गरीबी भी एक तरह से संस्कृति से वंचना ही है। इस गरीबी में जिस संस्कृति की बात पर जोर दिया जा रहा है उस पर विचार कर लेना आवश्यक जान पड़ता है।सामान्यतया संस्कृति को सभ्यता से जोड़कर देखा जाता है पर दोनों में काफी भिन्नता देखने को मिलती है। सभ्यता यदि विस्तार है तो संस्कृति सार है, सभ्यता अगर कर्म है तो संस्कृति विचार है, सभ्यता अगर गुलशन है तो संस्कृति उसका कारोबार है। इसका मतलब हुआ कि सभ्यता अगर व्यक्ति का बाहरी आवरण है तो संस्कृति उसका आंतरिक आभूषण है। इसमें मनुष्य के मूल्य-मान्यताएं, अवधारणाएं, वृत्तियां, मनोवृत्तियां,सौंदर्यबोध तथा नैतिकता आदि सब कुछ शामिल है जो मनुष्य को मनुष्य बनाए रखने के लिए अनिवार्य है। गालिब ने सच ही कहा है-
बस कि दुश्वार है हर काम का आसां होना।
आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसा होना।।
इसका अर्थ यही रहा होगा कि आदमी को प्रकृति बनाती है पर उसके व्यक्तित्व को गढ़ने तथा संवारने का कार्य संस्कृति करती है। यानी संस्कृति वह है जिसका जन्म मनुष्य की चेतना में होता है। जिससे मनुष्य अपनी उदात्त ,सूक्ष्म आकांक्षाओं तथा आदर्शो को चरितार्थ करता है। इन उदात्त मूल्यों के कारण वह एक बेहतर जीवन जीने की कोशिश करता है।
गरीबी को देखने का यह जो नजरियां होता है वह पक्षपातपूर्ण है। यह जरूरी नहीं की गरीब हर तरह से गरीब ही हो और अमीर हर तरह से अमीर ही हो। यह बात इसलिए सच है कि आमतौर पर मिलता है कि कोई आर्थिक रूप से बिपन्न हो सकता है लेकिन नैतिकता तथा भावना के स्तर पर सम्पन्न हो सकता है। वहीं पर यह भी मिलता है कि आर्थिक रूप से काफी रसूख रखने वाले लोग भी काफी क्षुद्र किस्म की होते है। संभ्रांत लोगों में अक्सर देखा जाता है कि उनके पास दो चेहरे होते हैं पब्लिक फेस और प्राइवेट फेस। लोगों के बीच जब वे होते हैं तो बहुत ही आदर्श व ऊंची बातें करते हुए दिखाई देते हैं। यहां तक कि उनके छींक भी आ जाती है तो सॉरी बोलने में भी नहीं चूकते हैं। उनका यह बर्ताव एक मानक मान लिया जाता है। ऐसे में वह समाज के बीच अपना सर्वोत्तम दिखाने की कोशिश में लगे रहते हैं। पर उनके वास्तविक व्यवहार के विषय में उनके घर वाले और नौकर चाकर भली-भांति अवगत होते हैं। वही व्यक्ति जो सबके सामने काफी शालीन था अपने अधिनस्थों से गंदी-गंदी गालियां देकर बात करता है। वहीं पर एक झुग्गी वाला जो अपना सारा जीवन सड़क पर बिताते हुए सुबह शाम लड़ता झगड़ता दिखाई पड़ता है उसे हम सड़क छाप का कर गलत साबित करते रहते हैं। जबकि हकीकत यह है कि आपस में झगड़ा करने वाले पति-पत्नी उसी शिद्दत से प्यार भी करते हैं जिससे शिद्दत से झगड़ते हैं। जबकि तथाकथित संभ्रांत लोगों का जीवन प्रायः नकली, पाखंड पूर्ण और छल कपट से भरा हुआ होता है। बाहर से तमीज दिखाने वालों में अंदर से बदतमीजी का आगार होता है। यह दिखावापन ही उसकी अपसंस्कृति है।
समाज में दो तरह के लोग होते हैं, होते आये हैं और होते भी रहेंगे। एक तो वे लोग होते हैं जिनके पास सबकुछ या बहुत कुछ होता है। पर ऐसा कुछ नहीं होता है जो उन्हें व्यक्तिगत तथा सामाजिक जीवन में एक पूर्ण इंसान होने दे। दूसरी ओर बहुत से ऐसे लोग होते हैं जिनके पास कुछ नहीं होता है या बहुत कम होता है फिर भी वह होता है जो उन्हें इंसान बनाये रखती है। एक मजदूर तथा पूंजीपति दोनों अपने-अपने कार्यों में लगे रहते हैं। पर मजदूर अपना मेहनताना पाकर खुश हो जाता है। वह विभिन्न प्रकार के भजन कीर्तन तथा तीज त्योहारों का जीवंत आनंद ले लेता है और लोगों के साथ घुलमिल कर पारस्परिक व सामाजिक जीवन यापन भी करता है। वही संपत्तिवान यानी पूंजीपति की बात करें तो वह मुनाफे के तंत्र से इस तरह ग्रसित रहता है कि वह समाज से अपने को जोड़ नहीं पाता है। संपत्ति उसे हर तरह से सुरक्षित करती है पर वास्तव में वह अपने को बेहद असुरक्षित महसूस करता है। ऐसे में वह धनवान अपनी अजनबियत के कारण गरीब बना रहता है।
एक धनवान व्यक्ति अपने अर्थ के बल पर बहुत कुछ खरीद सकता है। उसके पास कुशल सलाहकार हो सकते हैं,वह अच्छे आर्किटेक्ट से बहुत ही कलात्मक अट्टलिका बनवा सकता है,विभिन्न कुशल शेफ भोजन बनवा सकता है व डिजाइनर परिधान में सजा संवरा दिख सकता है। उसके पुस्तकालय में दुनिया भर के बेहतरीन साहित्य हो सकते हैं। पर उसके पास ये सब अमीरी होते हुए भी समय की गरीबी इस कदर होती है कि वह इनका उपभोग ही नहीं कर पाता है। उसके पास तो कंपनी की सालाना रिपोर्ट पढ़ने का समय ही नहीं होता है फिर वह कहां से किताबें पढ़ पाएगा? सफर में कभी-कभी संगीत की कोई धुन सुनाई दे जाए तो अच्छी बात है वरना आराम मन से गुदगुदाने वाले संगीत को सुनने का वक्त ही नहीं होता है। यहां तक कि परिवार के सदस्यों से डाइनिंग टेबल पर कभी कभार भेंट होती होगी। कैमरे तथा मीडिया की उपस्थिति में उसका जीवन भले ही रोशन दिखता हो। पर वास्तव में उसका जीवन जीवंत ना होकर यांत्रिक होता है।
सांस्कृतिक गरीबों की दुनिया में अब हम उस समुदाय की चर्चा करेंगे जो संस्कृति का सबसे बड़ा वाहक माना जाता रहा है।यह मध्यम वर्ग न केवल सांस्कृतिक उपादानों के अर्थवत्ता को समझता है बल्कि सबसे अधिक लाभान्वित भी होता रहा है। आधुनिक काल में कला, साहित्य, विचार और दर्शन जैसे क्षेत्रों में उसकी अगुवाई रही है। एक तरह से वह समाज तथा राजनीतिक का नेतृत्व करने के साथ-साथ सांस्कृतिक नेतृत्व कर रहा है। फिर भी कितनी बड़ी विडंबना है कि उसके पास सांस्कृतिक समृद्धि के सारे संसाधन और संस्कृति को समझने वाली चेतना भी है फिर वह अपनी प्राथमिकता ना तय पाने के कारण सांस्कृतिक गरीबी का शिकार होता है। इस वर्ग की सबसे बड़ी गुणवत्ता यह थी कि वह अक्सर अन्य वर्गों के समान रुढ़िवादी नहीं होता था। उसके अंदर एक तरह से गतिशीलता थी। इसी वर्ग में तमाम क्रांतिकारी भी रहे जिन्होंने समाज तथा देश को प्रगति पथ पर अग्रसर करने में महती भूमिका का निर्वाहन किया है। पर इस वर्ग में आज अंधानुकरण की प्रवृत्ति इतनी हावी होती जा रही है कि इस वर्ग के चरित्र में जो सकारात्मक थी वह छीजती जा रही है। उसमें एक तरह से नकलीपन आ गया है। वह अपनी समृद्धि सांस्कृतिक विरासत को छोड़कर समृद्धि पूंजीपति की नकल करने लगा है। उसके अंदर व्यक्तिगत लाभ की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है।वह जब पूंजीपति के समान विलासितापूर्ण जीवन यापन करने में अपने को अक्षम पता है तो कुंठाग्रस्त रहने लगता है। ऐसे में सांस्कृतिक समृद्धि के लिए जिस उत्साह तथा साहस की जरूरत होती है वह अब नहीं रह गयी है।
आधुनिक भारत के इतिहास में मध्यवर्ग की भूमिका पर एक सरसरी निगाह डालें तो हम पाते हैं कि उसने हर क्षेत्र में पथ प्रदर्शन का कार्य किया है। पर यह वर्ग भारत की औपनिवेशिक दौर में उत्पन्न हुआ है अतः ऐसे में दब्बूपना का मिलना इनमें स्वाभाविक है। भारत का सबसे समझदार और महत्वाकांक्षी समुदाय होते हुए भी यह वर्ग समझौतापरस्त तथा अवसरवादी भी रहा है। इसका मुख सदैव ब्रिटेन,चीन तथा अमेरिका की तरफ रहा है और अपनी जड़ों की ओर पीठ किये रहता है। जिसके कारण इसकी शाखाओं में फूल-फल आदि नहीं लग पाते हैं। इसे अपनी मेधा तथा सूक्ष्म दृष्टि के अनोखे इतिहास का बोध नहीं है जिससे वह अपनी राह का निर्माण कर सके। वह तो बस पाखंड,लालच, कुंठा और पूंजीवाद के संकीर्णताओं से ग्रसित है। विभिन्न प्रकार की विद्रुपताओं से ग्रसित होने के कारण उसमें जन्मजात विकलांगता तथा आत्मविश्वास की कमी आ गई है।
शिक्षा के व्यावसायिकरण का सबसे अधिक मार मध्यम वर्ग पर पड़ा है। एक तो विश्व गुरु का सपना देखने वाली व्यवस्था आज तक इतनी समर्थ नहीं हो पाई है कि देश की सभी बच्चों को ऐसा स्कूल उपलब्ध करा सके जहां बच्चे खुशी-खुशी जा सके। स्कूलों की जो न्यूनतम ज़रूरतें हैं जैसे कुर्सी, मेज,शिक्षक, खेल के मैदान, पानी और शौचालय आदि का अभाव ही है। शिक्षा का मकसद बच्चों की संभावनाओं को उजागर करके उसे बेहतर इंसान बनने में मदद करना होता है। पर बच्चों को एक सांस्कृतिक प्राणी बनाने के लिए जी सृजनशील शिक्षा की आवश्यकता होती है वह हमसे कोसों दूर जा रही है। रोजगारपरकत के चक्कर में हम उसे सांस्कारित व मूल्यनिष्ठ शिक्षा प्रणाली को भूलते जा रहे हैं। ऐसे में जिस शिक्षा प्रणाली का सहारा लेकर हम आगे बढ़ने की कोशिश में लगे हैं वह बच्चों के व्यक्तित्व में खोखलापन ला रही है।
मध्यम वर्ग के पास अवकाश अन्य वर्ग की तुलना में अधिक होता है जो सांस्कृतिक उत्पादन के लिए सबसे जरूरी चीज है। पर अवकाश के प्रति इसकी इतनी नकारात्मक समझ है कि इसका मतलब छुट्टी से समझा जाता है और छुट्टी का मतलब आराम और आराम का मतलब मुंह ढंककर सोने से है। सोते-सोते जब थक जाते हैं तो सोशल मीडिया के विभिन्न शार्टस देखकर तथा लाइक कमेंट करके अपनी अवकाश का सदुपयोग करने की कोशिश में लग जाते है। कुछ समय बाद झल्लाकर मोबाइल को एक बेड पर फेंक कर फिर अपनी दिनचर्या में लग जाते हैं। अवकाश के प्रति इनका जो यह नजरिया वह काफी बोरिंग तथा यांत्रिक होता है। यदि उसी समय सृजनात्मक कार्यों में लगाया जाय तो इनकी दिनचर्या काफी खुशगवार व आनंददायक हो सकती है। यह भारत देश ही है जहां पर अनेक साहित्यकार तथा देशभक्त जेल जीवन के अवकाश का भी सदुपयोग करके साहित्य सृजन कर समाज तथा देश को दिशा देते रहे हैं। हद तो तब होती है जब बहुत से छात्र छात्राएं पढ़-लिखकर समझदार तो हो जाते हैं पर बहुतों को यह नहीं पता होता है कि उनकी हाबी क्या है? जब नौकरी में साक्षात्कार का समय आता है तो अपनी हाबी के जानकारी के लिए इधर-उधर लोगों से पूछते हैं। सोशल मीडिया तथा शिक्षा प्रणाली के इस मायाजाल में फंसकर मनुष्य इतना खो गया है कि उसे स्वयं के विषय में जानने का वक्त नहीं मिल पाता फिर उसके सर्जनशील संस्कृति की उम्मीद हम कैसे कर सकते हैं?
गरीबों की सांस्कृतिक गरीबी की बात करें तो यह वर्ग नैसर्गिक रूप से संस्कृति के विभिन्न अवयवों से संपन्न होता है। विभिन्न प्रकार के दुश्वारियां का सामना करते हुए, कठिनाई से जीवन यापन करने के बावजूद ये डिप्रेशन की गोलियां नहीं खाते हैं। विभिन्न विपरीत परिस्थितियों में उनमें निराशा की संभावना कम देखने को मिलती है क्योंकि उनके समाज तथा परिवार में परस्पर सहभागिता, प्रेम,करुणा और जिजीविषा मिलती है। फिर भी उनकी संस्कृति में कुछ वंचनाए मिलती हैं। संस्कृति में समृद्धि उसकी गतिशीलता होती है। इन वर्गों में यह आमतौर पर देखा जाता है कि उनकी संस्कृति में कुछ समय बाद ठहराव आ जाता है।इस ठहराव के कारण वह अपनी नैसर्गिक संस्कृति में तो जीवन यापन करता रहता है पर उनमें विकास की संभावनाएं कम हो जाती है जिससे वह प्रगति नहीं कर पाता है। इस जड़वादिता के कारण उसके महत्वाकांक्षाओं और सपनों के पंख भी सिकुड़ जाते हैं। वह नियत वादी हो जाता है तथा ईश्वर के भरोसे बैठ जाता है। अवसर मिलने पर भी वह उसका लाभ नहीं उठा पाता है। यद्यपि आज के समय में यह वर्ग अपने अधिकारों लेकर चैतन्य हुआ है उसे प्रतिरोध करने की ताकत भी आ गई है। पर अपनी सांस्कृतिक समृद्धि को बनाये रखने के लिए जिस उत्साह और उमंग की जरुरत होती है उसका अभाव ही है।
आज के इस पूंजीवादी दुनिया में आर्थिक गरीबी पर बारीकी से विचार विश्लेषण किये जा रहे हैं। वंचित वर्गों को मुख्य धारा में लाने के लिए विभिन्न प्रकार की योजनाओं का निर्माण अनवरत हो रहा है।उसके लिए तमाम कानून प्रावधान भी किये जा रहे हैं। पर आज सांस्कृतिक गरीबी पर ध्यान देने की अनिवार्यता आन पड़ी है। क्योंकि आर्थिक समृद्धि के साथ सांस्कृतिक सम्पन्नता ही देश तथा समाज को अनुशासित दिशा दे सकती है।
नीरज कुमार वर्मा नीरप्रिय
किसान सर्वोदय इंटर कालेज रायठ बस्ती (उ.प्र.)
मो. 8400088017