वैज्ञानिक सोच का अभाव

वैज्ञानिक सोच का अभाव

आज का समय विज्ञान का है। विज्ञान पर सवार होकर मानव जाति नित नई-नई ऊंचाइयों पर पहुंच रहा है। इसी विज्ञान के ही देन है कि आज हम आदिमानव से होम्योसेपियंस तक पहुंच गए हैं। विज्ञान कितने अहम योगदान होने के बावजूद भी अधिकांश जनमानस इसके प्रति उदासीनता देखने को मिलती है। अपने दिनचर्या की शुरुआत विभिन्न प्रकार की वैज्ञानिक साधनों के माध्यम से करने के बावजूद उसमें ऐसी वैज्ञानिक चेतना का अभाव आसानी से देखा जा सकता है। ऐसे में वैज्ञानिक दृष्टि पर बात करने से पूर्व विज्ञान और वैज्ञानिक नजरिए पर चर्चा कर लेना आवश्यक जान पड़ता है। सामान्य जीवन में विज्ञान की तरह-तरह से परिभाषाएं मिलती है।जैसे विज्ञान स्कूल, कालेजों और विश्वविद्यालयों में पढ़ाया जाने वाला विषय है, विज्ञान बड़े-बड़े अनुसंधानों में पैदा होने वाला ज्ञान है, विज्ञान ऐसा ज्ञान है जिसके बिना मानव का विकास संभव नहीं है, विज्ञान विनाशकारी और हिंसक ज्ञान है। इस प्रकार विज्ञान की तरह-तरह कि परिभाषाएं मिलती हैं। एडम स्मिथ ने अपनी किताब हिस्ट्री ऑफ एस्ट्रोनॉमी में लिखा है कि विज्ञान व्यापक पैमाने पर, तर्क को आधार मानकर, कारण और उसके प्रभाव के संबंधों को उजागर करता है, ताकि इंसान का दिमाग संतुष्ट हो सके कि वह ना समझ में आने वाली ताकतों का शिकार नहीं है। यह परिभाषा विज्ञान की प्रायोगिक और तार्किकता के अधिक करीब है। इसी से कार्ल मार्क्स और एंगेल्स का विज्ञान के प्रति जो धारणा थी वह समाज और प्रकृति को समेटने का प्रयास करती है। उनका कहना था कि विज्ञान, ब्रह्मांड को समझने का ऐसा द्वंदात्मक तरीका है, जो वस्तुओं और विचारों को न बदलने वाली श्रेणियां में नहीं रखता बल्कि उन्हें गतिशील रूप में देखा है। चीजों को कभी न बदलने वाली श्रेणियां में नहीं बांटा जा सकता है, समाज और ब्रह्मांड दोनों को विविध प्रक्रियाओं के एक जटिल ढांचे के रूप में देखा जा सकता है। जो एक दूसरे पर प्रभाव डालती है और यह बदलाव एक लगातार चलने वाली प्राकृतिक क्रिया है। मार्क्स की यह परिभाषा काफी व्यापक अर्थ का बोध कराती है‌। एक तो यह बदलाव की ओर संकेत करती है दूसरे ओर यह परिवर्तन लाने वाले नियमों को भी समझाती है। इस परिभाषा के लगभग एक सदी बाद थॉमस कुहन ने कहा कि विज्ञान को दो हिस्सों में बांटा जा सकता है- एक वह जिसे हम आम ज्ञान कहते हैं जो एक निर्धारित प्रतिमान के तहत आता है। दूसरा क्रांतिकारी विज्ञान जो प्रतिमान में परिवर्तन लाने की बात करता है।
जहां तक वैज्ञानिक दृष्टिकोण की बात है तो यह विचार करने की एक विशेष पद्धति होती है। इस पद्धति का मानना है कि तर्क, अनुमान, प्रमाण, गणित तथा परीक्षण के तौर पर जो खरा उतरे उसी को सत्य माना जाए। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपनी पुस्तक डिस्कवरी ऑफ इंडिया में लिखा है कि यह वैज्ञानिक दृष्टिकोण है, जो साहसिक भी है और आलोचनात्मक भी, यह तलाश है सच की और नए ज्ञान की, यह रवैया है किसी भी दावे को तब तक न मानने का जब तक उसे परख ना लिया जाए, यह नए सबूत के रोशनी में पुरानी मान्यताओं को बदलने की हिम्मत है, यह किसी पहले से गढ़ी हुई परिकल्पनाओं के बजाय परखे हुए सच पर भरोसा करना है, यह विचारों को अनुशासन में रखने की योग्यता है। इसी वैज्ञानिक नज़रिए के विकास की बात हमारा संविधान भी करता है। भारतीय संविधान के नीति निर्देशक तत्व के अनुच्छेद 51 ए में इसका प्रावधान भी किया गया है।
इस कसौटी पर अगर कसे तो आम जनमानस ही नही जो विज्ञान के विषय में कम जानता है बल्कि बहुत से वैज्ञानिक भी अपनी निजी जिंदगी या विचारों में अवैज्ञानिक हो सकते हैं। बहुत से लोगों का भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान तथा जीव विज्ञान के पढ़ने पढ़ाने का तरीका भी अवैज्ञानिक साबित हो सकता है। दूसरी ओर इतिहास, अर्थशास्त्र तथा समाजशास्त्र समाजशास्त्र को पढ़ने पढ़ाने वालों का नजरिया वैज्ञानिक हो सकता है। इस प्रकार हम देख सकते हैं वैज्ञानिक दृष्टि संपन्नता के लिए विज्ञान जैसे विषय में प्रवीणता या कुशलता हासिल करने से कुछ नहीं होता है। एक सामान्य व्यक्ति जिसे विज्ञान के विषय में क, ख,ग, घ भी ना मालूम हो वह भी कहीं अधिक वैज्ञानिक दृष्टि से संपन्न हो सकता है।

यह हम तौर पर देखा जाता है कि जो विद्यार्थी विज्ञान पर लिखकर विज्ञान के शिक्षक तो बन जाते हैं पर विज्ञान के बारे में उनकी समझ कक्षा दसवीं स्तर से ऊपर नहीं उठ पाती है। उनके पढ़ाने का तरीका सिर्फ जानकारी को एकत्र करके उसे विद्यार्थी की समक्ष परोस देना मात्र होता है। ब्राजील के दार्शनिक पॉउलो रेग्लुस ने अपनी किताब पेडेगाजी ऑफ द औप्रेस्ड में शिक्षा के बैंकिंग मॉडल में कहा है कि जानकारी दिमाग में जमा कर दो और परीक्षा देते वक्त निकाल दो। ऐसी शिक्षा नागरिक के व्यक्तित्व का विकास नहीं करती। और दी गई जानकारी छात्र के दृष्टिकोण का हिस्सा नहीं बन पाती है। अध्यापक यह सिखाने में असमर्थ रहते हैं कि यह केवल वैज्ञानिक ज्ञान का संचय ना होकर जीवन जीने का मार्ग है। अध्यापक विज्ञान को तो थोड़ा बहुत आचरण में लाते हैं पर विज्ञान की वैचारिकता शून्य होती है। ऐसे में इस शिक्षा पद्धति का समाज से कोई लेना-देना नहीं है। बस जानकारी जमा करो और उसे परीक्षा आदि में उगल दो। उनके जानकारी का समाज में उठ रहे सवालों, आसपास की घटनाओं तथा सामाजिक बदलावों से कोई लेना-देना नहीं होता है।
एक सामान्य व्यक्ति पर ही नहीं बल्कि विज्ञान छात्रों पर भी समाज का दबाव इतना ज्यादा हावी होता है कि यदि वह विद्यालय में जो कुछ पढ़ रहा है उसपर उसका भरोसा भी हो फिर भी वह उसे दिनचर्या का अंग नहीं बना पाता है। स्कूल, कॉलेज तथा अनुसंधानों में वे सीमित समय गुजारते हैं। अपना अधिकांश वक्त तो समाज के बीच रहकर गुजारना होता है। समाज में धार्मिक अंधविश्वासों, पाखंडों तथा धार्मिक कथाओं का बोलबाला होता है जिससे बचना मुश्किल हो जाता है। अचार्य प्रफुल्लचंद्र रे जिन्हें आधुनिक भारतीय रासायन विज्ञान का पिता कहा जाता है अपने लेख सत्येरसंधान में लिखते हैं कि मैं आधी सदी से पढ़ा रहा हूं,इस अवधि में मैंनें हजारों छात्रों को बताया कि सूर्य और चंद्रग्रहण राहु और केतु राक्षसों द्वारा सूर्य और चंद्रमा को खाने के कारण नहीं होते हैं और यह कि सूर्य और चंद्रमा तथा मनुष्यों और राक्षसों की प्रार्थनाओं के कारण ग्रहण समाप्त नहीं होते हैं,कि ये विश्वास झूठे हैं और कल्पना के उत्पाद है। यह मैं आधी सदी से छात्रों को बता रहा हूं। उन्होंने सुना और मान गए। लेकिन ग्रहण के दौरान जैसे ही घरों में शंख बजाया जाता है, सड़कों पर प्रार्थना जुलूस निकलते है, ये पढ़े-लिखे लोग भी जुलूस में शामिल हो जाते हैं और अपना खाना फेंक देते हैं। यदि लोग इस प्रकार के पाखंड में लिप्त हैं और सत्य को खुले तौर पर स्वीकार नहीं करते तो देश की मुक्ति असंभव है।
समाज का निर्माण व्यक्ति और परिवारों से होता है। बच्चे की प्रथम पाठशाला उसका परिवार होता है। भारतीय परिवार पितृसत्तात्मक है जहां पर घर की प्रत्येक सदस्य पर पिता की सत्ता कायम रहती है। यदि घर में कोई बच्चा या सदस्य कुछ नया करना चाहे या कहीं जाना चाहे तो उसे उस सर्वज्ञानी पिता से सहमत लेना आवश्यक होता है। यदि वह अपनी सहमति नहीं देता है तो बच्चा या सदस्य उसे हरगिज नहीं कर सकता है। मैं यह नहीं कहता हूं कि परिवार में बड़े-बुजुर्गों का सम्मान नहीं होना चाहिए, उनके प्रति एक अदब की भावना अवश्य होनी चाहिए। किंतु असल बात यह है कि हमारे बड़े-बुजुर्ग जो भी परामर्श या सलाह देते हैं वह उनके समय या परिस्थितियों के हिसाब से सही हो सकता है। पर आज का समय की मांग यह है कि हम तभी उन्नति कर सकते हैं जब हमारे भीतर उनसे आगे बढ़कर सोचनें तथा करने की क्षमता हो। एक पन्द्रह-बीस साल का लड़का अपने पचास-साठ वर्ष के पिता की अपेक्षा अलग तथा प्रगतिशील विचार रख सकता है। यह घर की बड़े बुजुर्गों को सहज स्वीकार करना चाहिए। पर अदब, संस्कार तथा आज्ञाकारिता का हवाला देकर यही परिवार की वरिष्ठ सदस्य उसे परंपरागत सोच तथा रूढ़ियों में उलझाए रखते हैं। जिससे बालक या सदस्य की मानसिकता भी दकियानूसी हो जाती है।
किसी विषय के सत्य-असत्य की जांच करने की जो पद्धति है उसका हमारे यहां अभाव मिलता है। किसी वस्तु की प्रमाणिकता की जांच हम प्रायः निरीक्षण, तर्क,अनुमान और प्रत्यक्षानुभूति के आधार पर करते हैं। संसार में जितने भी आविष्कार हुए हैं पहले-पहल उसका किसी ने बारीकी से निरीक्षण ही किया है। जेम्स वाट के विषय में लगभग सभी जानते हैं कि एक समय वह किसी विचार में खोया था। उसके पास ही स्टोव पर केतली में पानी उबल रहा था। पानी उबल गया। केतली में भाप तैयार हो गई। केतली का ढक्कन नीचे गिर गया। तब अपने विचार में खोए हुए जेम्स ने उस ढक्कन को फिर केतली पर रख दिया। ऐसा तीन चार बार होने पर भी उसके मन में विचार नहीं आया कि शायद इस केतली में भूत होगा। वह अब सोचने लगा कि मेरे बार-बार ढक्कन रखने पर भी नीचे गिरता रहता है शायद इसमें कोई बात हो। उसके इसी निरीक्षण ने भाप इंजन का आविष्कार किया जो आगे चलकर औद्योगिक क्रांति की आधारशिला बनी।
जिन बातों का हम प्रत्यक्ष निरीक्षण नहीं कर सकते हैं उसके विषय में तर्क तथा अनुमान से जानकारी हासिल कर सकते हैं। धुआं देखकर हम यहां अनुमान लगा लेते हैं कि आसपास कहीं आग होगी‌‌। किसी बात की प्रमाणिकता केवल इन्हीं आधारों पर ही नहीं तय हो जाती बल्कि उसके विषय में अनुभूति आवश्यक है। शंकराचार्य ने कहा है कि सौ समझदार लोगों ने आपके पास आकर यह कहा की आग शीतल होती है। तो क्या आप उसे मान लेंगे? नहीं, आप नहीं मानेंगे।अगर आप से लोग कहेंगे कि अरे यार हम सौ समझदार लोग तुम्हें बता रहे हैं और ऐसा पुस्तकों में भी लिखा है। उस पर आप कहेंगे कि आप सभी के बारे में और मेरे मन में आदरभाव है। लेकिन मेरी अनुभूति और प्रत्यक्ष प्रमाण यह बताता है कि आग को हाथ लगाने से हाथ जल जाता है‌। ऐसे में स्पष्ट है कि अनुभूति वैज्ञानिक दृष्टिकोण का महत्वपूर्ण हिस्सा है। पर यह जो वैज्ञानिक प्रमाणिकता को सिद्ध करने के पहलू है उसका समावेश शिक्षा प्रणाली में विरले ही मिलता है।
भारत की नई शिक्षा नीति में इस बात पर बल दिया गया है कि वर्तमान शिक्षा शिक्षक केंद्रित न होकर बालक केंद्रित होगी। ऐसे में अध्यापक का यह दायित्व बन जाता है कि वह बालक के हर सवालों को ध्यान से सुने तथा उसका समाधान करने की कोशिश करें। उसकी जिज्ञासाओं को समुचित उत्तर द्वारा शांत करना शिक्षक का प्राथमिक कर्तव्य है। पर व्यवहार में इसका पालन नहीं होता है। आज भी बच्चों की कक्षा में शिक्षक की प्रमुख सत्ता होती है। यदि कोई बच्चा जिज्ञासावस कोई प्रश्न पूछ लेता है जैसे आसमान का रंग सूर्योदय-सूर्यास्त के समय लाल क्यों होता है? तो अध्यापकों के पास इसका रटा रटाया जवाब होता है चुप होजा या बेवकूफ यह प्रश्न परीक्षा में नहीं आएगा। ऐसे में बालक की स्वाभाविक जिज्ञासा को मार दिया जाता है। शिक्षक द्वारा बच्चों के साथ ऐसा व्यावहार करने से उनके मन में एक डर या संकोच घर कर जाता है जिससे फिर वे बच्चे संकोची स्वभाव के हो जाते हैं। शिक्षक के इस व्यावहार के साथ-साथ वह परिवार तथा समाज भी जिम्मेदार होता है जहां का माहौल ही ऐसा है कि बच्चा स्वस्थ संवाद कर ही नहीं सकता है। उसे घर तथा परिवार से सवाल पूछने का प्रोत्साहन नहीं मिलता है। यह भी देखने में आता है कि बालक के अंदर किसी पहलू पर नए ढंग से या स्वतंत्र रूप से सोचने की क्षमता ही कम होती है। जिससे वह मौलिक सवाल ही नहीं कर पाता है। प्रश्न ना पूछने की आदत से उसमें मानसिक पिछड़ापन आ जाना स्वाभाविक है।
जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि बीसवीं सदी उनकी है जो साइंस से दोस्ती कर लेंगे। मगर यह काम आज भी इसलिए मुश्किल है कि समाज में विज्ञान से दोस्ती करने के अवसर ही बहुत कम है। ऐसा नहीं है कि आम नागरिक विज्ञान से रू-ब-रू नहीं होता। एक सामान्य व्यक्ति भी बीज, खाद, कीटाणु नाशक खरीदते वक्त, बीमार व्यक्ति का डॉक्टर से इलाज करते समय तथा वैज्ञानिक प्रदर्शनियों में जाने अनजाने में वैज्ञानिक जानकारी हासिल करता रहता है। विभिन्न प्रकार के आपदाओं जैसे भूकंप, सुनामी तथा तूफानों की जानकारी उसे मिलती रहती है। मगर ये जानकारियां सिर्फ जरूरत पड़ने पर ही मिलती है। जिसके कारण एक व्यक्ति का प्रौद्योगिकी से नाता तो आसानी से बन जाता है पर विज्ञान से संबंध बनाना काफी मुश्किल हो जाता है। विज्ञान से यह दूरी उसकी चेतना पर नकारात्मक प्रभाव डालती है।
विश्व के जितने भी वैज्ञानिक हुए हैं उनका अपने जीवन काल में समाज से काफी द्वन्द्वात्मकता संबंध रहा है। भले ही आज हम उनकी पुण्यतिथि पर उनके मानवता के लिए किए गए कार्यों के कारण फूल माला पहनते हैं। इतिहास इस बात का गवाह है कि जब गैलीलियो ने दूरर्शक यंत्र का आविष्कार किया और पृथ्वी सूर्य का चक्कर करती है ऐसा कहना शुरू किया। तो इससे पहले जो मान्यता थी कि सूर्य पृथ्वी का चक्कर करता है,उसे धक्का लगा। उसके इस विचार से पूरे यूरोप में,खासकर ईसाई समुदाय में शोर मच गया। 1633 ईस्वी में गैलीलियो पृथ्वी के बजाय सूर्य को ब्रह्मांड का केंद्र बिंदु बताने के लिए मुकदमा चला। उस पर विधर्मी होने का आरोप लगाया गया। उसे अपने विचारों को त्यागने तथा माफी मांगने के लिए बाध्य किया गया। उसने माफी मांगते हुए कहा कि दोबारा ऐसी बातें नहीं करूंगा। पृथ्वी सूर्य का चक्कर नहीं कटती। बाइबिल में जो लिखा है वही सच है और वही मुझे मंजूर भी है। इसी तरह ब्रूनों ने ब्रह्मांड को अनंत बताया तथा पृथ्वी के अतिरिक्त अन्य ग्रहों पर जीवन होने की संभावना व्यक्त किया। चर्च ने उसके विचारों को धर्म-विरुद्ध बताया। उसे यह अवधारणा त्यागने के लिए कहा गया। पर ब्रूनो ऐसा करने से इनकार कर दिया जिसके कारण उसे जिंदा जला दिया गया। जब चार्ल्सडार्विन प्राकृतिक चयन के सिद्धांत को प्रस्तुत किया तो उसे धर्म-विरुद्ध घोषित किया गया। क्योंकि उसका यह मत इसके विरोध में था कि सृष्टि ईश्वर ने निर्मित किया है। आन्द्रे मेरी एम्पेयर ,जान बटलर बर्क, गर्लफ्रेंड वेगनर और इग्नाज सेमेल्वाइस आदि वैज्ञानिकों ने समाज के दबाव में अपने विचारों को वापस लिया तथा दंड के भागी बने। यह सही है कि आगे चलकर उनके योगदानों को सम्मान मिला पर तत्कालीन विरोध देखकर इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि वैज्ञानिकों के प्रति तत्कालीन समाज में कोई श्रद्धा या सम्मान नहीं था‌ । वैज्ञानिक होने का मतलब तलवार की धार पर चलने के समान था। ऐसी कठिन परिस्थितियों के देखकर लोग भयवश वैज्ञानिक नजरिया अपनाने से डरते हैं। इन्हीं सब कारणों से मनुष्य में जो तार्किक विचार तथा विज्ञान सम्मत परख होती है उसका अभाव होता जा रहा है।

नीरज कुमार वर्मा नीरप्रिय
किसान सर्वोदय इंटर कालेज रायठ बस्ती (उ.प्र.)
मो. 8400088017