कुंभ की पौराणिकता
इस वर्ष भारतीय संस्कृति में आस्था व विश्वास का यह महान पर्व जनवरी 2025 में प्रयागराज में आयोजित हो रहा है। इसकी तैयारियों तथा विशिष्ट उद्देश्यों के लेकर चर्चा-परिचर्चा से आए दिन हम प्रिंट,इलेक्ट्रॉनिक तथा सोशल मीडिया से रूबरू होते रहते हैं। अतः ऐसे में इस महापर्व की परंपरा के विषय में जानने की जिज्ञासा होना स्वाभाविक हो जाती है। भारतीय पौराणिक ग्रन्थों ,ऐतिहासिक ग्रंथों तथा विदेशी यात्रियों के विवरण से इसके दिव्य स्वरूप की झांकी मिलती है। पौराणिक संदर्भों में देखें तो इस महापर्व का उद्देश्य आत्मा की शुद्धि व मोक्ष की प्राप्ति करना होता है। कुंभ शब्द का अर्थ घड़ा या सुराही से है यह वैदिक ग्रंथों में पाया जाता है। पौराणिक कथाओं में इसे अमरता से जोड़ा जाता है।वहीं मेला शब्द का अर्थ किसी एक स्थान पर मिलना, सभा या सामुदायिक उत्सव में उपस्थित होने से है। यह शब्द ऋग्वेद तथा अन्य प्राचीन ग्रंथो में भी पाया जाता है। इस प्रकार कुंभ मेले का अर्थ अमरत्व का मेला है। भारतीय पुराणों में इस महापर्व की एक व्यापक परंपरा देखने को मिलती है।
श्रीमद् भागवत पुराण में समुद्र मंथन की कथा का सविस्तार वर्णन मिलता है। दैत्यों व दानवों के आतंक से पीड़ित होकर देवगण ब्रह्मा के पास उपाय पूछने गए। ब्रह्मा ने देवताओं के साथ मिलकर विष्णु की स्तुति की। उनकी स्तुति से प्रसन्न होकर भगवान नारायण ने कहा कि यदि अपना कल्याण चाहते हो तो अमृत प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करो। समुद्र मंथन से अमृत की प्राप्ति होगी। अपने कार्य को पूर्ण करने के लिए तुम्हें दैत्यों से बैर भाव छोड़कर संधि कर लेनी चाहिए। मंदर पर्वत को मथनी बनाएं तथा वासुकी नाग को रस्सी। क्षीरसागर में औषधियों तथा वनस्पतियों को डालकर मंथन करें। भगवान विष्णु से उपदेश प्रकार इंद्रादि देवगणों ने समुद्र मंथन का प्रयोजन बात कर दानवों को इस कार्य के लिए राजी कर लिया। फिर दोनों पक्षों ने जाकर मंदराचल को उखाड़ लिया और सागर की ओर चले। किंतु उसका भार अधिक होने के कारण उसे बीच मार्ग में रखकर निराश बैठ गए। तब नारायण स्वयं आए और उसे उठाकर गरुड़ पर रखकर सागर तक पहुंचा दिया।
इधर नागराज वासुकी भी रस्सी बने को तैयार हो गए। देवता उनके मुंह की ओर तथा दानव उनके पूंछ की ओर पकड़कर मंथन करने लगे। किंतु कुछ अंतराल बाद दानवों को हीनता का अनुभव होने लगा और उन्होंने स्थिति बदल ली। अब दानव मुंह की ओर और देवता पूंछ की ओर हो गए। किंतु समुद्र के निराधार होने के कारण मंदर नीचे बैठने लगा। तब नारायण ने कूर्म का रूप धारण करके समुद्र के नीचे जाकर मंदर के आधार के रूप में उपस्थित हो गए ऐसे में समुद्र मंथन लगातार चलने लगातार चलने लगा।
इस मंथन से जीव-जंतुओं की व्याकुलता बढ़ने लगी जिससे महाभीषण कालकूट निकला।जिसके प्रभाव से दिशाएं जलने लगी। तब प्रजापति ने भगवान शंकर से प्रार्थना किया और उन्होंने लोक कल्याण हेतु उस विष को गले में धारण कर लिया। उस गरल के प्रभाव से शंकर का कंठ नीला पड़ गया। जिसके कारण इन्हें नीलकंठ के नाम से भी जाना-जाने लगा। विष के प्रभाव से निर्भय होने के बाद पुनः देवताओं और दानवों ने निर्विघ्न रूप से मंथन जारी कर दिया। इस मंथन से चंद्रमा की समान श्वेत वर्ण का उच्चै:श्रर्वा नामक अश्व उत्पन्न हुआ जिसे दानवराज बलि ने ले लिया। तत्पश्चात ऐरावत हाथी इंद्र के हिस्से में, कौस्तुभ मणि विष्णु के हिस्से में आई। पारिजात वृक्ष नंदनोद्यान गया और अप्सराएं स्वर्ग लोक विराजी। लक्ष्मी के उत्पन्न होने पर देवता और दानव, दोनों उन पर मोहित हो गए। पर लक्ष्मी ने स्वयं विष्णु का वरण किया। वारुणी (मदिरा) उत्पन्न होने पर असुरों ने प्रसन्नता से उसे ग्रहण कर लिया। सबसे अंत में धनवंतरी अपने हाथ में स्वर्ण कुंभ लेकर बाहर आए जिसमें अमृत भरा हुआ था। इस कुंभ को देखते ही दानवों ने झपटकर उनसे छीन लिया और देवतागण मुंह ताकते रह गए। पर जब भगवान हरि ने देखा कि देवों का अभीष्ट पूरा नहीं हो रहा है तो उन्होंने तुरंत मोहिनी का रूप धारण करके उस जगह पहुंच गए जहां अमृत के लिए मारामारी मची हुई थी। मोहिनी के मनमोहन बदन को देखते ही असुरों का ध्यान अमृत कलश से हट गया और वे एकटक उसे निहारने लगे। मोहिनी ने बड़े ही चतुराई से कहा कि क्यों व्यर्थ में झगड़ा करते हो। इस पर समान रूप से सभी का अधिकार है। असुरों ने इस बात पर सहमति जताई। फिर मोहिनी ने देवता और दानवों को अलग-अलग पंक्ति में बैठाया तथा देवताओं को अमृत पिलाने लगी। इसको देखकर राहु छल से देवताओं की वेष में आकर देवपंक्ति में बैठ गया। इसे देखकर सूर्य और चंद्रमा ने विष्णु को संकेत कर दिया और विष्णु ने चक्र से उसका सिर काट कर गिरा दिया। किंतु अमृत के कारण उसका सर अमर हो गया।
मत्स्य पुराण के अध्याय 249 से 251 में समुद्र मंथ की कथा प्राप्त होती है। यह कथा भी श्रीमद् भागवत पुराण के समान देवता और दानवों के संघर्ष के रूप में वर्णित है। इस कथा में इस बात की भिन्नता मिलती है कि इसमें समुद्र मंथन में लगने वाले सौ दिव्य वर्षों का उल्लेख मिलता है। इतने समय तक समुद्र मंथन के कारण देवता और दानव काफी क्लांत हो गए तथा मंथन से विरक्त होकर बैठ गए। तब इंद्र ने मेघरुप धारण कर जल की वृष्टि किया ओर शीतल वायु बहने लगी। ब्रह्मा ने पुनः उत्साहित किया तो मंथन प्रारंभ हुआ।इसी तरह से समुद्र मंथन की कथा विष्णु पुराण के मंत्र संख्या एक से नौ में मिलती है।
श्री हरिवंश पुराण के तृतीय खंड भविष्य पर्व के अध्याय तीस से उन्तालीस में भी समुद्र मंथन के बारे में मिलता है कि एकबार देवतागण गंधमादन पर्वत के शिखरों पर भ्रमण कर रहे थे। वहां चारों ओर सुगंध फैली हुई थी। वे वहां शांत होकर बैठ गए। फिर वसंत ऋतु के आने पर उस गंध ने देवों,मनुष्यों और दैत्यों को अत्यंत विस्मित और प्रसन्न कर दिया। दैत्यों ने सोचा कि जब फूल की गंध इतनी मादक है तो फल कैसा होगा? किंतु उस फल की प्राप्ति के लिए अमरता का पाना आवश्यक है। अतः उन्होंने निश्चय किया कि हम अमृत की प्राप्ति के लिए औषधियों को डालकर समुद्र का मंथन करेंगे और इस कार्य में विष्णु हमारे अग्रणी होंगे। जब दैत्यों ने मथानी बनाने के लिए मंदरांचल पर्वत को उखाड़ना चाहा तो उन्हें सफलता नहीं मिली। तब वे सब ब्रह्मा के पास गए। ब्रह्मा ने सभी देवों को दैत्यों के साथ मिलकर उस समुद्र को मथने के लिए प्रेरित किया। फिर उस समुद्र में औषधीयां डालकर उसे हजार वर्ष दोनों मथते रहे। मथने के कारण समुद्र का खारा जल दूध के समान मीठे जल वाला हो गया।लोभ तथा रोष के वशीभूत होकर असुरों ने उसे ग्रहण कर लिया। इसके पश्चात धनवंतरी, मदिरा,लक्ष्मी, कौस्तुभ मणि, चंद्रमा तथा अंत में अमृत उत्पन्न हुआ। वह अमृत दैत्य-दानव नहीं प्राप्त कर सके बल्कि देवेंद्र को मिला। इस कथा में यह मिलता है कि समुद्र मंथन की प्रक्रिया की शुरुआत दैत्यों-दानवों ने किया था।
स्कंदपुराण में समुद्र मंथन कि कथा के विषय में यह वर्णन मिलता है कि उत्तर दिशा में हिमालय के समीप क्षीरसागर नामक एक समुद्र है। उस सागर को मथने के लिए मंदरांचल पर्वत को मथानी तथा वासुकी नाग को रस्सी बनाकर जब मंथन हुआ तो शुरुआत में विष निकला जिसका पानी शंकर ने किया। उसके बाद अन्य रत्न तथा गाएं आदि निकलने के बाद अंत में अमृत से ऊपर तक भरा हुआ कलश हाथ में लिए हुए भगवान धन्वंतरि उत्पन्न हुए। उस अमृत कलश को देखकर इन्द्र पुत्र जयंत उसे लेकर स्वर्ग लोक की ओर भागे। देवताओं के इस कृत्य को दैत्य गुरु शुक्राचार्य ने सर्प के उच्छवास के माध्यम से उन दैत्यों को बताया कि जयंत अमृतकलश को ले गये है। दैत्य यह सुनकर जयंत का पीछा करने लगे। जयंत बारह दिनों तक दशों दिशाओं में भागते रहे और दैत्य उनसे कलश छीनने का प्रयास करते रहे।पहले पीने के चक्कर में दैत्य और देव आपस में छीना झपटी करते रहे। इस संघर्ष में कलश से अनेक स्थलों पर अमृत का पतन हुआ। उस कलश की सुरक्षा में विभिन्न देवता भी लगे रहे। पुराणों में यह उल्लेख मिलता है कि देवताओं का एक दिन मनुष्यों के एक वर्ष के बराबर होता है। इसीलिए कुंभ पर्व की संख्या बारह है। इनमें से चार कुंभ मनुष्यों के पापो को नष्ट करने के लिए इहलोक अर्थात् भारत वर्ष में होते हैं और अन्य लोकों मे होते हैं जोकि देवताओं को प्राप्त हो सकते हैं क्योंकि उन लोकों में केवल देवता ही जा सकते हैं अन्य कोई नहीं। भारत वर्ष के उन चार पुण्य स्थलों हरिद्वार,नासिक, उज्जैन तथा संगम के तट पर स्थित तीर्थराज प्रयाग में जो कुंभयोग में स्नान करता है उसे अमृत्व की प्राप्ति होती है। इन चारों स्थानों पर अमृत कलश के छलकने से एक विशेष काल में यह कुंभ पर्व आयोजित होता है।
अन्य कई पुराणों तथा वायु पुराण के अध्याय 192, पद्मपुराण के ब्रह्मखंड के अध्याय 89 व 90 तथा उत्तरखंड के अध्याय 231 से 233 में भी समुद्र मंथन का वृत्तांत मिलता है। पुराणों के समांतर वाल्मीकि रामायण तथा व्यास के महाभारत में भी इस कथा का उल्लेख मिलता है। वाल्मीकि रामायण के बालकांड के अध्याय 45 में समुद्र मंथन की कथा का उल्लेख है। उस कथा को महर्षि विश्वामित्र श्रीराम तथा लक्ष्मण को सुनाते हुए कहते हैं कि सतयुग में दैत्यों और देवों के मन में यह विचार उत्पन्न हुआ कि हम निरोगी तथा अजर अमर कैसै होंगे? फिर मनन करते हुए उन्होंने अनुमान लगाया कि यदि क्षीरसागर का मंथन किया जाए तो निश्चय ही अमृतरस प्राप्त होगा। जिसका सेवन करने से हमें अमरत्व की प्राप्ति होगी। मंथन का यह वृत्तांत महाभारत के आदि पर्व के अध्याय सत्रह व अट्ठारह में भी वर्णित है। वहां जब अदिति और दिति जब उच्चैश्रव: अश्व को देखते हैं तो आश्चर्य में पढ़ जाते हैं कि ऐसा अद्वितीय सुंदर अश्व कहां से आया? तब उन्हें मालूम चलता है कि इसकी उत्पत्ति समुद्र मंथन से हुई। ऐसी बातों को सुनकर समुद्र मंथन के विषय में उनकी जानने की इच्छा होने पर सौति ने यह वृत्तांत सुनाया था।
इस प्रकार कुंभ के संदर्भ जो विभिन्न उल्लेख मिलते है उससे यह जानकारी मिलती है कि मंथन से निकले अमृत को पान करने के लिए दानवों और देवों का आपस में जो छीना झपटी हुई थी उससे कलश से अमृत की कुछ बूंदें धरा पर गिरी। ऐसे में इन स्थानों पर स्नान ध्यान करके मनुष्य अमरत्व की प्राप्ति कर सकता है।
नीरज कुमार वर्मा नीरप्रिय
किसान सर्वोदय इंटर कालेज रायठ बस्ती (उ.प्र.)
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