हिंदू सभ्यता एक आकाश गंगा की तरह है। जिसका ना तो कोई आदि है, ना कॊई अंत। ना कोई प्रवर्तक है, और ना ही कोई सृजन करता। यह धर्म तो सरिता के जल के समान निरंतर गतिमान है। यह हमे किसी एक मार्ग पर अग्रसर होने के लिए प्रतिबन्धित नहीं करता, और ना कभी किसी धर्म के अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह लगाता है।अपितु इसका दर्शन तॊ हमे बताता है कि ईश्वर की प्राप्ति तो निश्चित है भले ही उसके मार्ग भिन्न क्यॊं न हों। इतना ही नहीं यह हमे निर्देशित करता है कि सभ्यता और शास्त्र कभी भी काल भय नहीं होता। हमारी संस्कृति हमारी अपनी है यदि हम इसका सम्मान नहीं करते हमारी आस्था कमजोर है तो इसमे दुसरों का क्या दोष।
हाँ, यह सत्य है कि हमारे गौरवशाली संस्कृति पर निरंतर आघात हॊते रहे है।लेकिन फिर भी हमारी परंपरा आज भी हिमालय की तरह अडिग है। लेकिन मेरा विश्वास कीजिए जितनी हानि हमें और हमारी संस्कृति को वाह्य आक्रान्ताओं से नहीं हुई है उससे अधिक आंतरिक तथाकथित बुद्धिजीवियों से हुई है।
यदि ऐसा नहीं होता तो आज कल हमारे विद्वान “गंगा-जमुनी तहज़ीब” का वर्णन करने में गौरव की अनुभूति करते हैं लेकिन मुझे हैं इसका मतलब आज तक समझ में नही आया कि माँ गंगा किस संस्कृति की है और यमुनाजी किस परंपरा से आती है क्योंकि जहाँ तक मुझे पता है, गंगा जी और उनका पवित्र जल है हमारे सभी सॊलह संस्कारों में प्रयोग होता है जब शिशु जन्म लेता है तो गंगाजल से बना चरणामृत उसका प्रथम पान होता है और जब कोई सनातन अपनी अनंत यात्रा प्रारंभ करता है तो अंतिम पान भी गंगा जल ही होता है।
यदि गंगाजी के हमारे संस्कृति की आत्मा है तो यमुना जी की हमारे आराध्य भगवान श्रीकृष्ण के बाल्यावस्था से किशोरावस्था के आलौकिक लीलाओं की साक्षी हैं। फिर यमुना जी किसी और तहजीब या परंपरा से कैसे संबंधित कैसे हो सकती हैं। लेकिन यह कलुषित क्रीड़ा आज एक दिन मैं प्रारम्भ नहीं हुई है और न ही कोई अप्रत्याशित घटना है यह कुठाराघात तो सदियों से योजनाबद्ध तरीक़े से हमारी पावन सभ्यता, पवित्र ग्रंथों और धार्मिक परंपराओं पर होता रहा है जिसके निमित्त हमारे तथाकथित बुद्धिजीवी और भाषा के विद्वान बनते हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो हमारे हिंदी के विद्वानो के ‘मृत्युंजय’ से ‘मुनतासिर’ बनने तक की यात्रा का ही परिणाम है कि वे महाकवि तुलसीदास द्वारा रचित महाकाव्य श्री राम चरित मानस की अभद्र भाषा में फ़िल्मांकन और प्रस्तुतिकरण हुआ हैं । ऐसा करके उसने केवल हमारी आस्था पर ही आघात नहीं किया है बल्कि हमारी परंपरा को भी कलुषित किया है जो की अक्ष्म्या अपराध है। लेकिन यह तो केवल षड्यंत्र का बाहरी आवरण है इसका केंद्र बिंदु तो यहाँ से कोसो दूर पुष्पित-पल्लवित हो रहा है इसको समझने के लिए जब हम आज कल प्रचलित हिन्दी काव्य मंचों और मुशायरों पर दृष्टिपात करते हैं तो हमें पता चलता है कि इस समय के अधिकतर काव्य मंचन और मुशायरे खाड़ी देशों के द्वारा प्रायोजित होते हैं। जो विद्वान और हिदीं के सितारे इन कार्यक्रमों में प्रदर्शन करते हैं उनको पारिश्रमिक भी अच्छा मिलता है और प्रसिद्धि अतिरिक्त मिलती है। अब यह जगजाहिर बात है की ये आयोजक भारत के अमूल्य धरोहर और गौरवशाली परंपरा का गुणगान करने पर प्रसन्न तो नहीं होंगे और न ही अच्छा पारिश्रमिक देंगे। इसीलिए एक आभासी गठजोड़ करने के लिए हमारे बुद्धिजीवी “गंगा-यमुनी तहज़ीब” का आवरण ओढ़ लेते हैं। और तमाम कुतर्क प्रस्तुत करते हैं। कि हिन्दी अगर हमारी माँ है तो उर्दू हमारी मौसी है। यहि नहीं इससे भी आगे बढ़कर अपने आपको उनकी तरह दिखाने के लिए तरह-तरह के तकल्लुफ़ का प्रयोग अपने नाम के आगे करते हैं। जैसेकि ‘मुनतासिर’। हमारे धार्मिक ग्रंथों मैं सूक्ति है “यथा नाम: तथा संस्करणं” अर्थात जैसा आप का नाम होगा आप मैं उसी प्रकार के गुण विकसित होंगे तो अगर आपका नाम और संगति इस तरह की होगी तो आपकी भाषा तो दूषित होगी ही।
मेरी पीड़ा केवल यही नहीं है की एक हिंदी के कवि ने हमारे संस्कृति की आत्मा कहे जाने वाले ग्रंथ का अभद्र प्रस्तुतिकरण किया है अपितु मेरी चिंता यह है, कि कल को आने वाले भविष्य में इन फिल्मो के भाषा की समीक्षा जब तथाकथित बुद्धिजीवी करेंगे तो यही बताएँगे की आर्य इसी तरह की अभद्र भाषा मैं संवाद करते थे क्योंकि हमारे धार्मिक ग्रंथों की अपेक्षा ये फ़िल्मे और नाट्य मंचन आम जनमानस के लिए ज़्यादा सुलभ है। जैसा कि आज कल दुष्प्रचार किया जाता है कि आर्य बाहर से आए आर्य गोघन थे। अर्थात गोमांस का भक्षण करते थे।
इसी चिंता और पीड़ा के साथ मैं अपने लेखनी को विराम देता हूँ और भगवान शिव से पवित्र श्रावण मास मे प्रार्थना करता हूँ कि उस युवा कवि को सदबुद्धि प्रदान करें तथा हमारे गौरवशाली परंपरा की रक्षा करें।
जय महा काल
डॉ. मणिन्द्र तिवारी ‘शाश्वत’