🐚 *ओ३म्* 🐚
📚 ईश्वरीय वाणी वेद 📚
ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद बाहू राजन्य: कृत:।
ऊरु तदस्य यद् वैश्य: पदभ्यां शूद्रो अजायत।
।। अथर्ववेद १९/६/६।।
🌼 *मंत्र का पदार्थ*🌼
🔥 अस्य = इस पुरुष का 🔥 मुखम् = मुख 🔥 ब्राह्मण : = ब्राह्मण 🔥 आसीत् = हो गया। 🔥 अस्य बाहू = इसके दोनों बाहू 🔥 राजन्य: = क्षत्रिय 🔥 कृत: = मान लिए गए। 🔥 अस्य तद् ऊरू = इसकी यही दोनों जांघे समझिए 🔥 यद् वैश्य: = जो वैश्य है। 🔥 पद्भयाम् = दो पैरों से अर्थात् दो पैरों की कल्पना, भावना या उपमा से 🔥 शूद्र : अजायत = शूद्र उत्पन्न हो गया।
🍒 *मंत्र की मीमांसा*🍒
इस मंत्र से धार्मिक लोग अधिक परिचय भी हैं और इसके अनर्थ से हिंदुओं की बहुत बड़ी हानि हुई और आज भी हो रही है। हिंदुओं में जो वर्तमान *जातिभेद,छूत छात,ऊंच -नीच,वर्गद्वेष* फैला है , उसका आधार यही वेद मंत्र है। मंत्र शत-प्रतिशत सही है सारी गड़बड़ी मनमानी अर्थ को लेकर है। इसीलिए मैं इस बात पर बार-बार बल देता हूं कि *अर्थ के बिना सब व्यर्थ* है।
🏵️ *वैदिक समाजवाद*🏵️
यदि मंत्र के कल्पित गाथाओं को सर्वथा भुला दिया जाए तो यह मंत्र *वैदिक समाजवाद* का बड़ा उत्कृष्ट सुदृढ़ आधार सिद्ध होगा।
🍇 *एक उदाहरण*🍇
मलाई कीचड़ में पढ़कर *मल बन* जाती है। सोना मूर्खों के अधिकार में *मैला* पड़ जाता है। औषधि कुवैद्य के हाथ में पड़कर *विष* बन जाती है इसी प्रकार इस मंत्र की *अज्ञानियों* ने गलत अर्थ कर हिंदू जाति को *नष्ट और हिंदु सभ्यता को कलंकित* कर दिया।
🌹 *प्रचलित अर्थ*🌹
प्रजापति के मुख से *ब्राह्मण* , भुजाओं से *क्षत्रिय* , जंघाओं से *वेश्य* , और पैरों से *शूद्र* । इसलिए ब्राह्मण सबसे ऊंचे और शूद्र सबसे निकृष्ट हैं।
यदि कोई पूछे कि आजकल तो ब्राह्मण मुख से पैदा नहीं होते। क्षत्रिय बाहू से , न वैश्य जंघाओं से,न शूद्र पैरों से। आजकल तो सबका *उत्पत्ति स्थान तथा उत्पत्ति विधान समान है* फिर यह भेदभाव क्यों ? तो इसका यह उत्तर दिया जाता है कि आदि सृष्टि में ऐसा ही होता था।यह उत्तर बात समाप्त करने के लिए है न कि समाधान के लिए।यही पूर्वजों पर लगाया दोष आज की संतान भी ढो रही है।
🪷 *वैदिक अर्थ*🪷
यह मंत्र वेद के अनेक सूक्तों में से एक सूक्त *पुरुष सूक्त* का मंत्र है। पुरुष का अर्थ है *सुव्यवस्थित अंगों वाला शरीर* इस प्रकरण को समझने से मंत्र का यथार्थ संदेश समझ में आयेगा!
लोगों ने मूर्खता से यह समझ लिया कि इसमें शरीर के अंगों की भिन्नता दिखाई गई है , अर्थात् जो चार वर्ण हैं वे एक दूसरे से भिन्न हैं पूरक नहीं जबकि जैसे शरीर में *मुख ,हाथ,जंघा और पैर एक दूसरे के पूरक हैं उसी प्रकार समाज में भी *ब्राह्मण= विद्वान। क्षत्रिय= बलवान। वैश्य= धनवान और शूद्र = श्रमिक* ये चारों मिल कर *राष्ट्र पुरुष* का निर्माण करते हैं।जिस राष्ट्र की ऐसी शासन व्यवस्था हो वही राष्ट्र *चक्रवर्ती सम्राट* कहलाता है। आदि सृष्टि से लेकर महाभारत काल के कुछ पूर्व तक हमारे देश की यही शासन व्यवस्था थी उसी काल में हमको। *विश्व गुरु* का दर्जा हासिल हुआ था।
हमारे *पेटू पंडित* वर्ण व्यवस्था को समाज में समझाने में असफल रहे और *इस वर्ण व्यवस्था को तथाकथित जन्मना जाति व्यवस्था* बनाकर समाज को दिग्भ्रमित करते रहे!
पुरुष सूक्त के इस मंत्र द्वारा परमात्मा यही समझा रहा है कि *ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र* जाति नहीं अपितु वर्ण हैं।
🌻 *जाति और वर्ण*🌻
जाति का मतलब होता है जिसका प्रसव एक समान हो और जो जन्म से लेकर मृत्यु तक बदल नहीं सकती।जैसा पशु,पक्षी,कृमि ये जातियां हैं वैसे ही भूमंडल के सभी मनुष्यों की एक ही जाति है जिसका नाम है *मानव जाति* इस मानव जाति में दो उपभेद हैं एक *नरजाति और दूसरी नारी जाति= मानव जाति*।
अब बारी है *वर्ण* की।वर्ण का अर्थ है योग्यता। अर्थात् जो बुद्धि पूर्वक काम करते हैं वो राष्ट्र के *ब्राह्मण* है।जो अन्याय को समाप्त करते हैं वो राष्ट्र के *क्षत्रिय* ।जो अभाव को समाप्त कर राष्ट्र को धन-धान्य से परिपूर्ण करते हैं वो राष्ट्र के *वैश्य* और जो रात दिन राष्ट्र के सृजन में शारीरिक बल से श्रम कर रहे हैं ऐसे ज्ञानहीन, बलहीन,धनहीन श्रमिक राष्ट्र के *शूद्र* हैं। और ये *वर्ण जन्म से नहीं कर्म* से बनते हैं। इन चारों वर्णों से जो राष्ट्र बनता है उसी का नाम है। *वैदिक समाजवाद*।
इस प्रकार इतनी उत्तम मानव समाज संरचना को *उदरपोषक* तथा कथित लोगों ने जातिवाद में परिणत करके *सत्य सनातन वैदिक धर्म* का उपहास किया है।इसका एक ही समाधान है कि हम 📚 ईश्वरीय वाणी वेद 📚 को आत्मसात करें।
आचार्य सुरेश जोशी
👁️*वैदिक प्रवक्ता*👁️