*गीत*
लिख दिया है गीत तुमपर,
मीत क्या तुम पढ़ सकोगे।
यह समर्पण सिर्फ़ तेरे,
सिर्फ़ तेरे साथ है जो।
ज़िन्दगी की आप बीती,
सिर्फ़ तेरे हाथ है जो।
क्या अमावस की तिमिर में,
रोशनी तुम गढ़ सकोगे।
मीत क्या तुम पढ़ सकोगे।।
जब मिलन को तरसते हैं,
नैन नैनों से तुम्हारे।
भींग जाती हैं ये पलकें,
रूठ जाती हैं बहारें।
बुझ रहे ये दीप सारे,
क्या जलाकर बढ़ सकोगे।
मीत क्या तुम पढ़ सकोगे।।
उलझने जो माँगती हैं,
एक दूजे का सहारा।
नेह की सरिता बहे तो,
सुखद हो जीवन की धारा।
शूल पथ पर साथ मेरे,
क्या शिखर पर चढ़ सकोगे।
मीत क्या तुम पढ़ सकोग।।
© प्रतिभा गुप्ता ‘प्रबोधिनी’
खजनी, गोरखपुर