भारतीय पत्रकारिता: शिक्षण चुनौतियां-नीरज कुमार वर्मा

 

वर्तमान युग सूचना प्रधान है। आज के समय में पत्रकारिता का दायरा विश्वव्यापी हो चला है। उसके वैश्विक पहुंच में तो सोशल मीडिया ने चार चांद लगा दिया है। दुनिया की किसी कोने में होने वाली मामूली से मामूली घटना के विषय में हम ऑडियो, वीडियो तथा टेक्स्ट के रूप में सुन, देख और बिना समय गंवाए पढ़ सकते हैं। सही मायने में पत्रकारिता ने इस दुनिया को अब अपनी मुट्ठी में कर लिया है। आज यह तमाम वैज्ञानिक तकनीकी सुविधाओं से लैस होती जा रही है। जो कार्य करने में आजादी से पूर्व घंटों लगते थे वर्तमान में हम उसे तत्क्षण करने में सक्षम हो गए हैं। जहां तक शैक्षणिक जगत की बात है तो विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों में तथा विभिन्न संस्थाओं में पत्रकारिता को परिष्कृत करने के लिए शिक्षण-प्रशिक्षण भी कराये जा रहे हैं। पर ज्यों-ज्यों हम सुविधाओं से संपन्नता हासिल कर रहे हैं वहीं पर हमारी दृष्टि विपन्न होती जा रही है। आजादी के पूर्व या उस दौर की पत्रकारिता पर हम निगाह डाले तो वे समाचार पत्र पत्रिकाएं गागर में सागर भरने का कार्य करती थी। उस काल के पत्रकारों को औपचारिक प्रशिक्षण नहीं प्राप्त होता था,न ही उनके पास डिग्रियों के तमगे थे। फिर भी पत्रकारिता जगत में अपनी मिशनरी भावना, निष्पक्षता तथा गहन विचार- विश्लेषण से एक कीर्ति स्तंभ स्थापित कर दिया था। सचमुच उस दौर की पत्रकारिता अगरबत्ती न होकर मोमबत्ती थी जो चरण वंदना के बजाय समाज तथा देश को रोशन किया करती थी।
पत्रकारिता जगत में जो गिरावट देखने को मिलती है उसके कई मौजू होते हुए भी वे शिक्षक तथा प्रशिक्षण संस्थान भी कहीं न कहीं जिम्मेदार है जो पत्रकार पैदा कर रहे हैं। जहां तक अकादमिक शिक्षण प्रशिक्षण की बात है तो विभिन्न विश्वविद्यालयों जैसे वर्धा, कोलकाता ,मुंबई, बनारस,आगरा, चंडीगढ़ तथा भोपाल आदि में संचार एवं पत्रकारिता से संबंधित पाठ्यक्रम चलाए जा रहे हैं। यहां से स्नातक, परास्नातक तथा पीएचडी की डिग्रियां भी प्राप्त होने लगी है। निजी विश्वविद्यालयों तथा संस्थानों में मोटी फीस लेकर पत्रकारिता की डिग्रियां वितरित की जा रही है। डिग्रियों की मांग बढ़ने के कारण इसे प्रोफेशनल कोर्स के रूप में परिवर्तित कर दिया गया है। पर इन डिग्रियों की व्यावहारिक जगत की पत्रकारिता में कोई विशेष उपयोगिता नहीं साबित हो पाती है। वास्तविकता यह है कि पत्रकार का प्रशिक्षण जितना क्लास शुरू के भीतर होता है उससे कहीं ज्यादा व्यावहारिक धरातल पर होता है। वास्तविक अनुभव व एक्स्पोज़र के बिना पत्रकारिता का विद्यार्थी अपने आपको अदना ही पता है। ऐसे में व्यावहारिक तथा अकादमिक जगत में जो एक खाई है उनके लिए यह एक चुनौती ही है। जरूरत इस बात की है कि दोनों को एक दूसरे का पूरक समझा जाय क्योंकि पत्रकारिता प्रैक्टिस पर आधारित कार्य है।
पाठ्यक्रम और पाठ्य सामग्री को लेकर इन शिक्षण संस्थाओं की पहुंच अभी काफी सीमित है। देखा जाता है कि इनके पाठ्यक्रम में प्रैक्टिकल के बजाय सैद्धांतिक विषय वस्तुओं पर अधिक जोर रहता है। सत्तर से अस्सी फीसदी किताबी ज्ञान तो बीस से तीस फीसदी व्यावहारिक प्रशिक्षण के नाम फाईल वर्क कराके कोटा पूर्ति कर ली जाती है। जबकि उन्हें इस बार पर विशेष जोर देने की जरूरत है कि यह एक फील्ड वर्क है जिसे हम अधिक से अधिक जमीन पर कार्य करके प्राप्त अनुभव से इस पेशे को समृद्ध कर सकते हैं। पाठ्य सामग्री के रूप में पत्रकारिता जगत में हिंदी माध्यम की पुस्तकों का अभाव देखने को मिलता है। ऐसे में विद्यार्थी अंग्रेजी माध्यम की पुस्तकों को अपने टेबल पर लाने के लिए विवश हो जाता है। इन पुस्तकों से वह विशेषज्ञता हासिल कर लेता है। पर आम तौर पर ये पुस्तक विदेशी पृष्ठभूमि तथा वहां की सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक समझ पर लिखी जाती है। जिसके कारण जब वह डिग्री लेकर कॉलेज या विश्वविद्यालय से निकलता है तो भारतीय परिवेश से अजनबीयत महसूस करता है। हिंदी माध्यम की सैद्धांतिक पुस्तकों के साथ-साथ इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से संबंधित स्टूडियो, वीडियो, फोटोग्राफी, लाइटिंग, मेकअप, एक्टिंग, बॉडी लैंग्वेज, एक्टिंग तथा इवेंट मैनेजमेंट आदि पर हिंदी में मौलिक पुस्तकों की नितांत जरूरत है। हिंदी मीडिया जगत के शब्दकोश के निर्माण पर यदि ध्यान दिया जाए तो वह काफी बेहतर साबित होगा।
हिंदी क्षेत्र के पत्रकारिता जगत में देखा जाता है कि इसके शिक्षक मध्य युगीन मानसिकता से ग्रसित रहते हैं। वे लकीर के फकीर बने रहते हैं। उनके सोचने तथा पढ़ाने के तरीकों में काफी दकियानूसी होती हैं। ऐसे में उनके द्वारा जो पत्रकार तैयार होते हैं उनकी सोच भी काफी रुढ़िवादी होती है। पत्रकारिता की दुनिया में जिस उदारता की जरूरत है वह माहौल नहीं बना पाते हैं। आधुनिक समय में जो नई-नई चुनौतियां मीडिया जगत के सामने आती रहती है उसका समाधान करने में असमर्थ रहते हैं। वे अपने आपको वैश्विक परिवेश से नहीं जोड़ पाते हैं। वहीं पर इन विश्वविद्यालयों में जो पत्रकारिता के विभाग होते हैं उसमें खास तबकों के शिक्षकों का वर्चस्व रहता है। जिसके कारण वंचित तबका इनसे अपने आपको नहीं जोड़ पाता है। वह निरुत्साहित रहता है। ऐसे अन्तर्विरोध का समाधान करके ही भारतीय पत्रकारिता को हम वैश्विक बना सकते हैं।
सरकारी विश्वविद्यालयों में जहां पर पिछड़ी मानसिकता है। वहीं पर निजी विश्वविद्यालयों तथा संस्थाओं में अधकचरी पश्चिमी संस्कृति का बोलबाला है। इन संस्थानों में जमीनी हकीकत के बजाय ग्लैमर का ज्यादा वर्चस्व रहता है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के प्रशिक्षण संस्थानों में यह चकाचौंध अधिक देखने को मिलता है। मीडिया शिक्षण के दौरान जो मूल्य, आदर्श तथा मिशन उनके दिमाग में भरने की जरूरत रहती है उससे वे महरुम रह जाते हैं। इस चकाचौंध भरी दुनिया से जब वे डिग्री या डिप्लोमा करके निकलते हैं तो उन्हें जमीन पर काफी द्वंद्व का सामना करना पड़ता है। वे उस इंडिया का प्रतिनिधित्व तो कर लेते हैं लेकिन भारत से अपने आपको नहीं जोड़ पाते हैं। ऐसे में निजी शिक्षण संस्थानों को आज एक मुकम्मल परिवेश तथा माहौल में शिक्षण प्रशिक्षण की आवश्यकता हो गई है।
हिंदी प्रदेशों के विश्वविद्यालय में पत्रकारिता विभाग हिंदी विभाग का एक उपांग बनकर रह गये है। चाहे वह केंद्रीय विश्वविद्यालय हो या राज्य विश्वविद्यालय हो वहां पर हमें अक्सर हिंदी एवं आधुनिक पत्रकारिता विभाग लिखा मिलता है। ऐसे में हिंदी विभाग के अध्यापक ही पत्रकारिता से संबंधित पाठ्यक्रमों को पढ़ाने के लिए विवश होते हैं। हो सकता है कि पत्रकारिता जगत की कुछ सैद्धांतिक बातें उनकी जानकारी में हो पर इसके व्यावहारिक पहलू में ये प्रोफेसर तथा लेक्चरर अनजान ही होते हैं। ऐसे में यहां पर पत्रकारिता से संबंधित जो भी शिक्षण प्रशिक्षण होता है वह काफी दोयम दर्जे का होता है। पत्रकारिता की इस अपरिपक्वता निकलने के लिए सबसे जरूरी है कि विश्वविद्यालयों में इनके स्वतंत्र विभाग स्थापित हो। तथा वहां पढ़ने वाले शिक्षक प्राय: इस क्षेत्र के विशेषज्ञ हो। विशेषज्ञता तथा स्वतंत्र विभाग एक अच्छे पत्रकार का निर्माण कर सकती है। शासन ने इस संबंध में कुछ पहल किए हैं जिसके चलते माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता जैसे विश्वविद्यालय की स्थापित हो चुके हैं। जरूरी आज देश के सभी राज्यों में पत्रकारिता विश्वविद्यालय स्थापित हो। ताकि अधिक से अधिक सुशिक्षित पत्रकार तैयार होकर देश, समाज तथा पत्रिका जगत को एक सही दिशा दे सके। वर्तमान पत्रकारिता को हम अपने सैद्धांतिक तथा व्यावहारिक ज्ञान से ही पूर्ण बना सकते हैं। दोनों में संतुलन होने से इस प्रगति में पंख लग सकता हैं। जयशंकर प्रसाद ने लिखा है-
ज्ञान दूर कुछ क्रिया भिन्न, इच्छा क्यों पूरी हो मन की।
एक दूसरे से न मिल सके, यह विडम्बना है जीवन की।।

नीरज कुमार वर्मा नीरप्रिय
किसान सर्वोदय इंटर कालेज रायठ बस्ती उ.प्र.
8400088017

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