ग़ज़ल
न पूछो हाल मुझसे उस मकीं का
निवाला बन चुका है जो ज़मीं का
बड़ा रुतबा कभी था नामचीं का
मुक़द्दर ने नहीं छोड़ा कहीं का
मुहब्बत है मुझे बेहद वतन से
मैं शैदाई हूँ अपनी सरज़मीं का
मुहब्बत का कभी इकरार कर लो
वज़ीफ़ा छोड़ दो हरदम नहीं का
जिसे मैं जानो दिल से चाहता हूँ
कभी दीदार भी हो उस हसीं का
मुझे कब इल्म था वो बेवफ़ा है
मिला अच्छा सिला मुझको यक़ीं का
बड़ा मुश्किल है नखरों को उठाना
‘अहम’ सपना न देखो नाज़नीं का
-सुरेन्द्र सिंह ‘अहम’