ग़ज़ल
जाने किस फ़िक्र में ऐ माहजबीं रहता है
पास रह कर भी मेरे पास नहीं रहता है
लाख चाहा कि चला जाय मेरी आँखों से
अपनी आदत के मुताबिक वो यहीं रहता है
उसको एहसासे वफ़ा अपना दिलाऊ कैसे।
उसको बस अपनी वफ़ाओं पे यकीं रहता है
उसपे तारी है मुहब्बत का बहुत गहरा नशा
अपने जज़्बात के वो बस में नहीं रहता है
लाख समझाओ गुनेहगार समझता ही नहीं
तौबा तब करता है जब वक़्त नहीं रहता है
कौन से गोशे में रहता है मुझे इल्म नहीं
इतना मअलूम है वो मुझ में कहीं रहता है
मेरे मिलने की मुझे आस नहीं है हर्षित
मैं कहीं और मेरा होश कहीं रहता है
विनोद उपाध्याय हर्षित