आओ नफ़रत की यह दीवार गिरा दी जाए, ,,,,,सलीम बस्तवी अज़ीज़ी ،،،،،

अनुराग लक्ष्य, 6 नवंबर
मुंबई संवाददाता ।
जिस तरह फूल में खुशबू, दूध में मक्खन, पत्थर में अग्नि और मेंहदी में लाली छिपी रहती है, उसी तरह साहित्य और अदब मेरे दिलों में भी रचता है और बस्ता है। इसी सच्चाई के साथ अपने कुछ अशआर आपकी मुहब्बतों और समा अतों के हवाले कर रहा हूं, इस उम्मीद के साथ कि आपका प्यार और दुलार हमेशा की तरह मुझे आज भी मिलेगा।

सुबह् तुझसे है शाम तुझ्से है
है जो मेरा यह नाम तुझसे है
जिसको पढ़कर दिवानी है दुनिया
मेरा सारा कलाम तुझसे है,,,,,,,,

सबकी दुनिया संवार दे मौला
दिल में खुशियां हज़ार दे मौला
जिनके हिस्से में सिर्फ कांटे हैं
उनको भी कुछ बहार दे मौला,,,,,,

कुछ फूल भी ऐसे हुए जो खार हो गए
सस्ते कभी मंहगे यहां बाज़ार हो गए
तंग आ गए लड़ते हुए बेकारियों से जब
न चाहते हुए भी गुनहगार हो गए,,,,,,,

सेयासत के परिंदों की अदाकारी का क्या कहना
जो करते हैं सरे बाजार मक्कारी का क्या कहना
सेयासात के लेबासों में हमारे दरमेयाँ आकर
वतन के साथ जो करते हैं गद्दारी का क्या कहना,,,,,,

आओ नफ़रत की यह दीवार गिरा दी जाए
इक नई दुनिया मोहब्ब्त की बसा दी जाए
अम्न का दीप जलेगा ज़रूर भारत में
गंगा जमुना की लहर फिर जो बहा दी जाए,,,,,,,,

,,,,,,,,,,, सलीम बस्तवी अज़ीज़ी,,,,,,,,,

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