भास्कर छिप गया रात होती रही
चांदनी चांद संग फिर भिगोती रही
वादियां ये सुहानी -सुहानी हुई
उसकी अल्हण ये कैसी जवानी हुई
देखकर झरनों की ओट से वो मुझे
सिर्फ कहानी वो सारी बताती रही
भास्कर छिप गया रात होती रही
चांदनी चांद संग फिर भिगोती रही
ये धरा जुगनुओं से है ऐसी सजी
देख परियों की बारात सी ये लगी
जब सितारे मेरे संगी साथी बने
द्वेष से अग्नि में वो नहाती रही
भास्कर छिप गया रात होती रही
चांदनी चांद संग फिर भिगोती रही
जब खिली चांदनी हूर सी वो लगी
फिर मिलन की कोई आस मन में जगी
चल रही नींद में रात भी जाने क्यूं
वो तो रह रह के मुझको लुभाती रही
भास्कर छिप गया रात होती रही
चांदनी चांद संग फिर भिगोती रही
डॉ अजीत श्रीवास्तव “राज़”