डुबो के ज़हर में लाया है पान मेरे लिये,
वही जो कहता था दे देगा जान मेरे लिये।
लगाया भाइयों ने हिस्सा जायदाद का जब,
हवेली खुद रखी ढहता मकान मेरे लिये।
जहां पे ग़ज़लें मेरी बिक सकेंगीं रद्दी में,
कोई तो खोलेगा ऐसी दुकान मेरे लिये।
ज़मीन वालों से उम्मीद-ए-मदद पाग़ल हो,
मदद तो भेजेगा अब आसमान मेरे लिये।
वो क़ौम जिसको मिटाने को ठान बैठी है,
बहोत अज़ीज़ है वो ख़ानदान मेरे लिये।
ये तख़्त-ओ-ताज़ की तजवीज़ कहा ले आये,
अमा फ़िज़ूल है ये आन बान मेरे लिये।
नदीम भरते थे तुम दम इसी मोहब्बत का,
उन्हें उरूज नवाज़ा ढलान मेरे लिये।
नदीम अब्बासी ‘नदीम’
गोरखपुर।