ग़ज़ल
दुश्मन जहां छुपा है,वो घर जानता हूं मैं,
शोलों से खेलने का हुनर जानता हूं मैं।
लब्बैक कह के साथ मेरे,गुम हुये जो लोग,
जा कर जहां छुपे हैं,वो दर जानता हूं मैं।
अम्बर तलक़ पहुँच के जो इतरा रहे हो तुम,
है बाजुओं पे किस का वो पर जानता हूं मैं।
तुझ को ख़बर नही है अलग बात ये मगर,
नेज़े पे तेरे किस का है सर जानता हूं मैं।
परचा दिखा के ले तो लिया,खाऊँगा नही,
इन अंग्रेज़ी दवाओं का असर जानता हूं मैं,
करने को तो शिकार मेरा,आ गये सभी।
सीने में किस के कितना है डर जानता हूं मैं,
अख़बार की न धौंस मुझे दीजीये नदीम।
कितनी है इस में सच्ची ख़बर जानता हूं मैं।
नदीम अब्बासी “नदीम”
गोरखपुर।