अनुराग लक्ष्य, सितंबर
सलीम बस्तवी अज़ीज़ी,
मुम्बई संवाददाता ।
हिंदी के सम्मान में, मैं सलीम बस्तवो अज़ीज़ी, कभी यह पंक्तियां ,, मेरी हिंदी हिंद की जान है, इस पर हमको अभिमान है, है राम की मर्यादा इसमें, और सीता की पहचान है,,, कहकर अपने आप को बहुत ही गर्ववानवित महसूस कर रहा था। लेकिन आज हिंदी साहित्य की जो दुर्दशा है, उस पर रोना आ रहा है। अब प्रश्न यह उठता है कि जिस देश में हिंदी साहित्य की पुस्तकें किलो के भाव में रद्दी की शक्ल में बिकने लगें तो उस देश के साहित्य का आंकलन आप स्वयं कर सकते हैं।
सोशल मीडिया पर तो हिंदी साहित्य पर हमेशा चर्चा परिचर्चा की जाती है और देश के बड़े बड़े साहित्यकार अपने को हिंदी साहित्य का पुरोधा और भीष्म पितामह मनवाने के लिए कुछ दिलचस्प आयोजनों का भी प्रदर्शन करते नज़र आ जाते हैं। तो ऐसे महापुर्षों के रहते हिंदी साहित्य की दुर्दशा क्यों।
क्या हिंदी साहित्य को पढ़ने और समझने का दौर खत्म हो चुका है। निसंदेह कहीं न कहीं हिंदी के साथ छल हो रहा है। जिसके जिम्मेदार हम हिंदी से प्रेम का दम भरने वाले खुद ही हैं, जो और दूसरी भाषाओं के मोह के चक्कर में हिंदीहैं के साथ सौतेला व्यवहार कर रहे हैं, और अपनी राष्ट्रभाषा का अपमान भी।
अगर मेरे विचारों से आपके ह्रदय को कोई अघात पहुंचा हो तो मैं सलीम बस्तवी अज़ीज़ी, अपनी इन चार पंक्तियों से आपका ध्यान ज़रूर अपनी तरफ आकर्षित करना चाहूंगा।
,,, कितना हसीं सफर हो साहित्य और अदब का
इक आंख में हों ग़ालिब दूजे में गर निराला
उर्दू अगर है धड़कन हिंदी हमारी जां है
आओ इन्हें उढ़ादें तहज़ीब का दुशाला,,,,,,
,,,,,,,,,सलीम बस्तवी अज़ीज़ी,,,,,