दिलों को जीत ले बजकर जो ऐसा साज़ बन जाना।
बता दूं मैं जिसे हर राज़ वो हमराज़ बन जाना।
नहीं रुकतें हैं पल कोई, तुम्हारे बिन भी बीते हैं।
गुज़ारे हैं मग़र ऐसे न मरते हैं न जीते हैं।
सफ़र लम्बा है जीवन का कहीं रस्ते में मिल जाना।
नहीं शुरुआत में आये समापन में चले आना।
जिसे सुनकर मैं रुक जाऊँ वही आवाज़ बन जाना।
दिलों को,,,,,,,,
करीने से सजा रक्खा तुम्हें मन के मकानों में।
कि जैसे हो सज़ी मूरत किसी मंदिर के आलों में।
समर्पण प्रेम और विश्वास की ऐसी कहानी हो।
जिसे मैं खो के पा जाऊँ वही अद्भुत निशानी हो।
जिसे मैं भूल न पाऊं वही अंदाज़ बन जाना।
दिलों को,,,,,
ज्योतिमा शुक्ला ‘रश्मि’