लेखिका: नेहा वार्ष्णेय, दुर्ग (छ.ग.)
हाल ही में रायपुर की एक सड़क पर वायरल वीडियो ने मुझे झकझोर कर रख दिया — एक छोटी बच्ची सड़क के बीचोबीच बैठकर अपने पिता से iPhone दिलवाने की ज़िद कर रही थी। यह दृश्य न सिर्फ विचलित करता है, बल्कि एक गहरी सामाजिक चिंता को भी जन्म देता है: क्या आज की पीढ़ी को हम सिर्फ देना सिखा रहे हैं, सहना नहीं?
जहाँ एक समय में हम जैसे बच्चे 5 या 10 रुपए की टॉफी या बिस्कुट के लिए बड़ी मासूमियत से माँ-बाप से आग्रह करते थे, वहीं आज बच्चे सीधे iPhone, PS5, ब्रांडेड कपड़े और महंगी छुट्टियों की माँग कर बैठते हैं। माता-पिता भी अपनी असफल आकांक्षाओं की पूर्ति अपने बच्चों में तलाशते हुए उन्हें “सब कुछ देने” की होड़ में जीवन का मूल्य देना भूल जाते हैं।
हमारे पौराणिक शास्त्रों में वर्णन है कि कलियुग में मनुष्य अपनी संतानों के प्रति इतना आसक्त हो जाएगा कि उन्हें अनुशासन देना तो दूर, अनुचित प्रेम में उन्हें बिगाड़ बैठेंगे। माताएं कहावतों में “चाट-चाट के बच्चों को लहूलुहान कर देती हैं” – ये बातें अब प्रतीक नहीं, यथार्थ बनती जा रही हैं।
आज का बच्चा बिजली की बचत, जल संरक्षण, खाने की कद्र, स्त्री सम्मान या सामाजिक जिम्मेदारी जैसे मूल्यों से अंजान क्यों है? क्योंकि इन बातों को अब ‘उपदेश’ समझा जाता है, ‘संस्कार’ नहीं। माता-पिता उन्हें हर मांग पूरी करके अपनी “सामर्थ्य” दिखाना चाहते हैं – पर क्या यही सच्चा सामर्थ्य है।
भारत की कुछ आदिवासी जनजातियाँ अपने बच्चों को जीवन का डर निकालने के लिए अकल्पनीय परंतु प्रभावी तरीके अपनाती हैं। बच्चे की आंखों पर पट्टी बाँधकर उसे जंगल में एक पेड़ से बाँध दिया जाता है, ताकि वह अकेले रात बिताए। अगली सुबह सूरज की पहली किरण के साथ पट्टी खोल दी जाती है। बच्चा डर पर विजय पाता है। यह क्रूर नहीं, सशक्तिकरण है। इसी प्रकार से कंगारू माता भी अपने नवजात को बार-बार लात मारती है ताकि वह मजबूत बन सके, यह जाने कि भागना है, जीवित रहना है।
हमारा समाज आज इन स्वाभाविक शिक्षाओं को भूलता जा रहा है। बच्चों को देने से पहले उन्हें जीने की समझ देना जरूरी है। हर वस्तु की कीमत होती है, और जब वह बिना परिश्रम या संघर्ष के मिलती है, तो उसकी कद्र नहीं रहती।
यह समय है जब हम अपने बच्चों को ना कहना सीखें। उन्हें रोने दें, जिद करने दें, असफल होने दें। तभी वे मजबूत बनेंगे। हर बार जीत, सुविधा और सफलता देने से पहले उन्हें संघर्ष का स्वाद चखाना जरूरी है। क्योंकि जीवन में पकने से ही स्वाद आता है – और संघर्ष ही उस पकने की आँच है।
आज माता-पिता के पास सब कुछ है – संसाधन, ज्ञान, प्यार – पर यदि हम इनका विवेकपूर्ण उपयोग नहीं करेंगे, तो अगली पीढ़ी भौतिक रूप से संपन्न लेकिन नैतिक रूप से खोखली बनकर रह जाएगी।
संस्कार दीजिए, सिर्फ संसाधन नहीं। जीवन सिखाइए, केवल सुविधा नहीं। प्यार की भी मर्यादा होनी चाहिए।