लेख एक ऐसी स्त्री की अंतरात्मा की आवाज है जो आज भी सत्य, सहजता और संवेदना में विश्वास रखती है।
“मैं छल नहीं जानती, मैं चाल नहीं चलती। मैं सीधी बात करती हूं, इसलिए उलझती हूं।
क्या यह दोष है? या फिर कोई पुरानी आत्मा हूं जो आज की दुनिया में कुछ अधिक जिंदा रह गई है?”
मुझे परिचय देने के लिए लंबा परिचय नहीं चाहिए।
मैं ‘मानवी’ हूं — एक सरल, सच्ची और संवेदनशील स्त्री।
ना कोई मुखौटा, ना कोई अभिनय।
ना संबंधों में चालाकी, ना व्यवहार में चतुराई।
मुझे नहीं आता वह “गेम” जो दुनिया खेलती है — मीठा बोलो, मन में कुछ और रखो।
मुझे वह “सफाई” नहीं आती जिसमें लोग दिल से नहीं, दिमाग से जवाब देते हैं।
मेरे लिए रिश्ते मतलब रखते हैं — केवल मतलब के लिए नहीं होते
आजकल हर कोई “डिप्लोमैटिक” बनना चाहता है।
सब चाहते हैं कि जो बोले वह ‘सही समय’ के अनुसार हो, ‘सही तरीके’ से हो, ‘समिति के हिसाब से’ हो।
पर मैं पूछती हूं — क्या भावनाएं भी अब ‘फॉर्मेट’ में बोलनी पड़ेंगी?
मैंने देखा है कि अगर आप सच्चे हो, तो लोग आपको
👉 या तो बेवकूफ समझते हैं,
👉 या इस्तेमाल करके छोड़ देते हैं,
👉 या फिर आपकी भावनाओं को हल्का मानते हैं।
पर क्या यह मेरी गलती है, या फिर इस समाज की जो सच सुनना नहीं चाहता?
मुझे लगता है कि दिल की बात जुबान पर लाना मेरी ताकत है।
मैंने सीखा है —
👉 प्यार है तो कह दो,
👉 नफरत है तो भी सामने रख दो,
👉 अगर कुछ नहीं भी कह सको, तो आंखें बयां कर देंगी।
पर आजकल लोग इसे ‘इमोशनल’ कहकर टाल देते हैं।
कुछ तो कहते हैं — “तुम बहुत जल्दी खुल जाती हो”, “बहुत भरोसा करती हो”,
“बहुत सीधी हो… दुनिया समझ जाएगी तुम्हें।”
पर सवाल ये है —
दुनिया समझेगी मुझे, या मैं इस दुनिया को अब भी समझने की कोशिश कर रही हूं?
यह सवाल हर उस स्त्री के मन में आता है जो भावनात्मक रूप से ईमानदार है।
मैं भी पूछती हूं —
👉 क्या मेरा सहज रहना बेवकूफी है?
👉 क्या मेरा ‘ना छिपाना’ अब कमजोरी है?
👉 क्या मेरा ‘सच बोलना’ अब अपराध है?
और जवाब आता है —
“नहीं। तुम गलत नहीं हो।
गलत वो दुनिया है जो सच से डरती है,
गलत वो समाज है जो मासूमियत को मूर्खता कहता है।”
मुझे बार-बार ठोकरें लगीं।
कई बार रिश्तों में चोट मिली।
लोगों ने मेरी सच्चाई को हल्के में लिया, मेरे स्वभाव को कमजोरी समझा।
पर इन सबके बाद भी मैंने खुद को खोया नहीं।
मैंने सीखा —
“सरल होना आसान नहीं है।”
यह एक संघर्ष है — रोज़ खुद को समझाने का,
कि तुम सही हो, भले ही दुनिया तुम्हें समझने में नाकाम हो।
दुनिया बदल रही है, पर कुछ को स्थिर रहना जरूरी है
जब सब भाग रहे हों, कुछ को थमकर खड़ा रहना होता है।
जब सब बहाव में चलें, कुछ को तट पर दीप जलाना होता है।
मैं वही हूं —
जो शोर में भी मौन रखती हूं,
जो दुनिया की चाल में भी सच्चाई का पैर टिकाए रहती हूं।
मैं सीधी हूं — पर कमजोर नहीं।
मैं सच्ची हूं — पर मूर्ख नहीं।
मैं भावुक हूं — पर असहाय नहीं।
मैं ‘मानवी’ हूं — और मेरी सादगी मेरी शक्ति है।
जो मुझे समझेगा, वह मेरी आत्मा की गर्मी से पिघल जाएगा।
जो नहीं समझेगा, शायद वो इस लेख को पढ़कर थोड़ा समझने की कोशिश करेगा।
“सरल होना साहसी होना है।
और अगर दुनिया में अब भी कोई सच्चा दिल रखता है,
तो जान ले — वह भी कहीं न कहीं ‘मानवी’ ही है।”
🖋️ – मानवी की आत्मा से निकला एक पत्र, उन सभी के लिए जो अपने ‘सच’ पर विश्वास खो रहे हैं।
नेहा वार्ष्णेय (लेखिका)
दुर्ग छत्तीसगढ़