“जब मैं मर जाऊँ…”
जब मैं मर जाऊँ,
तो मेरे शरीर से निकाल लेना मेरी आँखें,
और दे देना किसी बच्चे को,
जिससे वो अपनी माँ को देख सके,
उसके चेहरे की झुर्रियों में
वो सारा प्यार पढ़ सके,
जो उसने बिना कहे जिया है।
निकाल लेना मेरा दिल,
और रख देना किसी नौजवान के सीने में,
जो पहली बार प्यार करे,
धड़कनों में ख्वाब बुन सके,
और सच्चे जज़्बात को
कभी मज़ाक न समझे।
मेरे हाथ दे देना
उस मज़दूर को,
जिसके पास मेहनत है,
मगर हौसला कम नहीं,
ताकि वो अपने बच्चों के लिए
एक बेहतर कल गढ़ सके,
ईंटों में सपने जोड़ सके।
मेरे पैर दे देना
उस लड़के को जो दौड़ना चाहता है,
पर किस्मत ने उसे बिठा दिया है,
जो आसमान छूना चाहता है,
पर ज़मीन ने बाँध रखा है।
मेरे होंठ दे देना
उस लड़की को,
जो चुपचाप सहती रही,
जिसके पास कहने को बहुत कुछ था,
पर समाज ने उसकी आवाज़ छीन ली।
मेरी रगें दे देना
किसी कलाकार को,
जो हर साँस में रंग भर सके,
जो इंसानियत की तस्वीर
हर दिल में खींच सके।
और जो बचे,
उसे मिट्टी में मिला देना
जो खाद बन मिट्टी को ऊर्जा दे सके,
क्योंकि मैं तो चला गया,
मगर चाहूँगा
कि मेरे ना होने से
किसी की ज़िन्दगी बन जाए।
स्व रचित (अप्रकाशित)
नेहा वार्ष्णेय
*दिल से दिल तक*