विदाई

एक दिन बेटी को रोते देखा मैंने,

उस दिन थी उसकी विदाई,

रो रो कह रही थी अपने पिता से ,

मत करो पापा मुझे पराई,

बेबस था पिता भी उस दिन क्योंकि,

उस दिन थी उसकी विदाई।

 

पापा मम्मी रो रहे थे,

कोने में बैठे सिसक रहा था,

उसका छोटा भाई,

कह रहा था मम्मी से,

दीदी क्यू हो गई पराई,

ना करो विदाई दीदी की ना करो विदाई।

 

इतना मुझको लाड़ लड़ाती,

इतना मुझको खेल खिलाती,

रूठू गर मैं थोड़ा सा भी,

तो गुदगुदा के मुझे हसाती,

चली जाएगी वो घर से तो मैं किससे करूंगा लड़ाई,

मत करो विदाई दीदी की मत करो विदाई।

 

बेटी बोली ओ मम्मी मैं क्या तेरी कोई नही,

भेज रही तू ऐसे घर में जहा पे मेरा कोई नही

तू तो कहती थी की मैं ही तेरी राजदुलारी हूं,

मेरी खुशियों में तू खुश है तुझे जान से प्यारी हूं,

क्या आज नहीं मैं प्यारी तुझको जो कर रही मुझे पराई।

ना करो विदाई मेरी ना करो विदाई।

 

बेटी की यूं बातें सुनकर रो रो के मां कहती है,

ऐसी बाते मत कर तू तो आज भी राजकुमारी है,

भरा रहे खुशियों से जीवन यही दुआए देती हु,

सारी खुशियां तुझे मिले और सारे गम मैं लेती हू,

पर क्या करू समाज ने ऐसी रस्में है बनाई,

करनी होगी विदाई तेरी करनी होगी विदाई।

 

जान गई बेटी भी अब की पराया घर ही अपना है,

जो पल बीत गए इस घर में अब वो सब एक सपना है

उन घड़ियों को साथ में लेके पराए घर ही जाना है,

और जाकर के उस पराए घर को ही अपनाना है।

पोंछ कर अपने आंसुओ को हिम्मत उसने दिखाई,

होने लगी विदाई बेटी की होने लगी विदाई।

 

देख विदाई बेटी की सबकी आंखे भर आईं।

हो गई विदाई बेटी की हो गई विदाई

तस्वीर पुरानी है

 

मुकेश कविवर केशव सुरेश रूनवाल,

जोधपुर (राज.)