अदब की नुमाइंदगी करती रवि केडिया ,आदिल, की ग़ज़लें, ज़ख्म ही ज़ख्म हैं मुहब्बत में, ख़ुद को अब दिल्फिगार कौन करे,,,,


अनुराग लक्ष्य, 19 अप्रैल
सलीम बस्तवी अज़ीज़ी
मुम्बई संवाददाता ।
उर्दू ज़बान की शीरीनी और मिठास से कैसे कोई इन्कार कर सकता है। खासकर जब ग़ज़लों की बात चले, तो इंसान इसकी लज़्ज़त से कैसे महरूम रह सकता है।
मैं आज इस बात को पूरी शिद्दत और ज़िम्मेदारी से कहना चाहता हूँ कि उर्दू सिर्फ अब मुसलमानों की ज़बान नहीं रही, बल्कि हमारा ग़ैर मुस्लिम भाई भी इससे पूरी तरह आशना हो चुका है। तभी तो शायरों और शायरात का एक बहुत बड़ा तबका अब उर्दू भाषा को लेकर काफी संजीदा हो चला है। साथ ही साथ उर्दू की बाकायदा तालीम लेकर अपने आपको ग़ज़लों और गीतों में ढालकर अवाम से रूबरू भी हो रहा है। ऐसे ही मोअतबर नामों में मुंबई की सरजमीन पर एक नाम आता है। दुनिया ए अदब जिसे रवि केडिया , आदिल, के नाम से जानती और पहचानती है। मैं सलीम बस्तवी अज़ीज़ी आज उन्हीं की एक ग़ज़ल से आपको रूबरू कराने जा रहा हूँ।
1/ अब तेरा ऐतबार कौन करे,
प्यार की दाग़दार कौन करे ।
2/ ज़ख्म ही ज़ख्म है मुहब्बत में,
खुद को अब दिल्फिगार कौन करे ।
3/ और, ग़म कम हैं क्या ज़माने में,
प्यार का कारोबार कौन करे ।
4/ दिल लगाकर के एक मूरत से,
पैरहन तार तार कौन करे ।
5/ वहशतों का ही दौर है हर सू,
इश्क़ का रोज़गार कौन करे ।
6/ जब दुआ इक दफ़ा में हो मकबूल,
बंदगी बार बार कौन करे ।