फलक से कभी चांद मेरे आंगन में उतरा ही नहीं।
और मैंने गुजार दी कितनी रातें उसके इंतजार में।।
पर एहसास ए मोहब्बत में जायका भी तभी है।
जब के चश्म ए दीद हुश्न हो और इंतजार हो।।
उनकी बातों में कदर था और एहतराम भी।
पर बात ही कुछ और हो जब के इत्मिनान हो।।
मुसलसल रात दिन आजाब से डरता रहा है वह।
और खु़लूस ए खत एहतियाती के इंतजार में।।
जमाना ए दस्तूर की फितरत हरदम रही यहां।
यह देखते हैं चश्में गुनाह से पाक ए अजीम को।।
ये मोहब्बत इक इबादत है इनायत भी खुदा की।
सो करते रहो बेलौस और बेखौफ हो के कृष्ण।।
बाल कृष्ण मिश्र ‘कृष्ण’
बूंदी राजस्थान
१५.०३.२०२५