“खुद को इंसा क्यो कहते हो,
ज्ञान की भर २ पोटलि लेकर,
बस रातों दिन ही चलते हो।
ज्ञान देव बन अन्य के लिए,
खुद अनुसरण न करते हो।
पल भर का भी खबर नहीं,
पर जतन युगों का करते हो।
ऊपर से स्नेह दिखाते हो पर,
मन का दुर्भाव न क्षरते हो।
तुम अपनों और परायों से,
हरदम ही इर्ष्या करते हो।
खुद की रेखा को नाप-नाप,
औरों की छोटी करते हो।
जब नीर क्षीर की सूझ नहीं,
फिर हंस बने क्यों फिरते हो।
खुद को इंसा क्यो कहते हो।।१
हिय में करुणा है बसी नहीं,
फिर झूठी आहें क्यों भरते हो।
सबसे ज्ञानी पंडित तुम ही,
बस इसी दंभ में रहते हो।
जन दर्पण का है भान नहीं,
तुम प्रति छाया से डरते हो।
ये जन मन जो भी कहता है,
उसका तुम अर्थ बदलते हो।
जो श्रेष्ठ जनों ने कहा कभी,
तुम कभी न उस पे चलते हो।
गौरव गरिमा का ध्यान नहीं,
तुम उच्श्रृंखल ही फिरते हो।
जब तत्व नहीं मानवता के तो,
खुद को इंसा क्यो कहते हो।।२
उत्फुल्ल कभी तुम हुये नहीं,
नैराश्य में हरदम रहते हो।
तुम राग विराग को तजे नहीं,
पर बैराग्य की बातें करते हो।
बनते हो तुम दानवीर पर,
काम कृपण सा करते हो।
आभूषण लेकर क्षमा की तुम,
इकलों विकलों से लड़ते हो।
है सच सुनने का ताब नहीं,
बस ठकुर सुहाती सुनते हो।
जिन बातों में कोई सार नहीं,
तुम उसी बात को धुनते हो।
जब इंसानों जैसा है तत्व नहीं,
फिर खुद को इंसा क्यों कहते हो।।३
बाल कृष्ण मिश्र कृष्ण
बूंदी राजस्थान
२०.०१.२०२४