कुंभ का उद्देश्य-नीरज कुमार वर्मा नीरप्रिय

 

जब व्यक्ति अपना कोई साधारण- सा कार्य करने को तत्पर होता है तो उसके पीछे कोई न कोई उद्देश्य सन्निहित होते हैं। ठीक उसी तरह भारतीय संस्कृति में जो विभिन्न प्रकार के पर्व ,त्यौहार और उत्सव के आयोजन समय-समय पर होते हैं उसमें भी कुछ संदेश छुपे होते हैं। हिंदू धर्म तथा संस्कृति के उन विभिन्न पर्वों में एक कुंभ भी है जिसका अपना पौराणिक, धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक महत्व है। इसका आयोजन भारतीय संस्कृति के चार प्रमुख स्थलों पर एक निश्चित समय अंतराल पर होता है। कुंभ के ऐतिहासिकता के विषय में पुराणों में यह उल्लेख मिलता है कि जब समुद्र मंथन के फल स्वरुप धनवंतरी अमृतपूर्ण कुंभ लेकर प्रकट हुए तो दैत्य उसे हस्तगत करने ही सचेष्ट हुए। दैत्यों की मनसा भांपकर विष्णु जी ने उसे छिपाने के लिए इंद्र पुत्र जयंत को संकेत कर दिया। जयंत उस अमृत कुंभ को लेकर भागने लगा। दानवों के गुरु शुक्राचार्य के ललकारने पर दैत्य जयंत के पीछे दौड़े। इस प्रकार देवता और दैत्यों के बीच संघर्ष प्रारंभ हो गया और यह संघर्ष बारह दिनों तक चलता रहा। संघर्ष के इन बारह वर्षों में कुंभ को बारह स्थानों पर जयंत के द्वारा रखा गया। इन बारह स्थानों में से आठ स्थान देवलोक में है तथा चार स्थान मृत्युलोक में है। इसी आधार पर पुराणों में बारह कुंभपर्व की स्थापना की गई। इसमें से चार मृत्युलोक के लिए तथा आठ देवलोक के लिए है। स्कंदपुराण में वर्णित है-
पृथित्यां कुंभपर्वस्य चतुर्धा भेद उच्चते।
चतुस्थले चपनात् सुधा कुंभस्य भूलते।।
गंगाद्वारे प्रयागे च धारा गोदावरी तटे।
कल शाक्यों हि योगोअ्यं प्रोच्यते शग्ड़ारादिभि:।।
ऐसे में जहां-जहां अमृत बूंदे गिरीं वहीं वहीं कुंभ मनाए जाने के उल्लेख प्राप्त होते हैं। इस प्रकार से हरिद्वार, तीर्थराज प्रयाग उज्जैन व नासिक जैसे चार स्थलों पर अमृत कुंभ से निसृत बूंदों के कारण कुंभपर्व मनाया जाता है। गंगा यमुना एवं सरस्वती का संगम तथा अक्षयवट की प्रधानता होने के कारण तीर्थराज प्रयाग के कुंभ का सर्वाधिक महत्व है।
आस्था,विश्वास और संस्कृति का यह महापर्व इस वर्ष प्रयागराज में आयोजित हो रहा है। 13 जनवरी 2025 पौष पूर्णिमा से प्रारंभ होकर 26 फरवरी 2025 महाशिवरात्रि तक रहेगा। इस मेले का मुख्य उद्देश्य आत्मा की शुद्धि व मोक्ष प्राप्त करना है। इन नदियों में स्नान करने से न सिर्फ भौतिक संसार की चिंताओं से मुक्ति मिलती है बल्कि जन्म मरण की गहरे अर्थों को भी समझा जा सकता है। ऐसे आयोजन समाज को न केवल धार्मिक रूप से बल्कि सांस्कृतिक रूप से भी समृद्ध करते हैं। इससे हमें संस्कृतिक, नैतिक तथा आध्यात्मिक बल मिलता है। यह पर्व हमें इस बात का याद दिलाता है कि इस भाग दौड़ भरी जिंदगी में केवल भौतिक समृद्धि से ही हमें संतुष्टि नहीं मिलती है बल्कि वास्तविक सुख तो आध्यात्मिक उन्नयन में है। ध्यान, साधना तथा आत्म चिंतन के लिए यह एक उत्तम आयोजन है ।स्कंदपुराण में कुंभ के विषय में वर्णन मिलता है कि जो व्यक्ति कुंभ का लाभ प्राप्त करता है उसको देवता उसी प्रकार से नमन करते हैं जैसे भिखारी किसी धनवान को-
तान्येव य: पुमान् योगोसोअ्मृतत्वाय कल्पते।
देवा नमान्ति तंत्र स्थान तथा रड़का: धनाधिपान्।।
इस मेले के आयोजन से नागरिकों में प्रकृति तथा अपनी धरोहरों के प्रति लगाव में इजाफा होता है। हम भारतीय अपनी संस्कृति के द्वारा संपूर्ण विश्व को यह संदेश देते हैं कि हम नदियों को देवता मानते हैं और उसकी पूजा करते हैं। यह पर्व हमें यह सिखाता है कि हम सभी एक ही ब्रह्मांडीय चेतना का हिस्सा है। इस पर्व में सभी जातियों, धर्मों और समुदायों के लोग बिना किसी भेदभाव के एक साथ स्नान करते हैं। साधु, संत, गृहस्थ, व्यापारी, किसान और विदेशी पर्यटक तक बहुत बड़ी संख्या में कुंभ पर्व शामिल होते हैं। कुंभ पर्व के दौरान विभिन्न अखाड़ों से साधु-संत एकत्र होते हैं और उनके बीच परस्पर वैचारिक मतों का आदान-प्रदान होता रहता है। जिससे इस पर्व में शामिल लोगों को अपने आध्यात्मिक तथा सहिष्णुता जैसे मूल्यों के उन्नयन का मौका मिलता है। इस पर्व में होने वाले विभिन्न धार्मिक प्रवचनों, कथा, भजन तथा कीर्तन आदि से संस्कारित होते रहते हैं। इससे लोगों को अपने संस्कृति से जुड़ने की प्रेरणा मिलती है। यह पर्व सामाजिक तथा सांस्कृतिक एकता का प्रतीक है। यह पर्व वासुधैय कुटुंबकम का संदेश देता है और समग्र सृष्टि के लिए कामना करता है-
सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामय:।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मां कश्चित दु:खभाग्भवेत्।।
यहां पर्व हमें आत्मिक सच्चाइयों से रूबरू कराता है। यह हमें चिंतन मनन करने के लिए प्रेरित करता है। इस बात की याद दिलाता है कि हमारी यात्रा चाहे कितनी भी बाहरी क्यों न हो, हम सभी में एक ही आंतरिक शांति और एक ही दिव्यता से जुड़े हुए हैं।‌ ऐसे में यहां पर्व भारतीय सांस्कृतिक धरोहर के श्रेष्ठता का बोधक है। इस आयोजन में भारतीय संस्कृति के रीति-रिवाजों,अध्यात्मिक संस्कारों तथा लोक कलाओं का अद्धितीय प्रदर्शन होता है। कुंभ पर न केवल विश्व का सबसे बड़ा धार्मिक संगम है बल्कि यह एक तरह से एक आध्यात्मिक समागम भी है जहां लाखों करोड़ों की संख्या में लोग आस्था और श्रद्धा के साथ कल्पवास करते हैं। महीनों तक साधुओं तथा संतो की संगत करने का उन्हें जो सुअवसर हासिल होता है अन्य पर्वों में संभव नहीं होता है। इस पर्व के महत्व को देखते हुए वर्ष 2017 में यूनेस्को ने इसे मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक धरोहर के रूप में मान्यता दिया। इससे स्पष्ट हो जाता है कि कुंभ की महत्ता केवल भारतीय सीमा तक ही सीमित नहीं है बल्कि यह एक वैश्विक धरोहर बन चुका है। अतः ऐसे वैश्विक पर्व में शामिल होने से हमारे अंदर आत्मगौरव तथा अपनी संस्कृति के प्रति
श्रेष्ठता बोध का विकास होता है।
कुंभ शब्द स्वयं में गहरा शाब्दिक अर्थ रखता है। कुंभ यानी घड़ा और कुंभ यानी हमारा शरीर भी। घड़ा न केवल पौराणिक कथाओं का केंद्र रहा है बल्कि यह हमारे जीवन में ऊर्जा, शुद्धता व स्थिरता का प्रतीक है। जिस प्रकार से किसी को कुंभ में अमृत रूपी जल भरा होता है उसी प्रकार से हमारे शरीर में भी प्रेम, ज्ञान व सद्गुण रूपी जल भरा होता है। ऐसे में यह कुंभ मेला हमें आध्यात्मिक दृष्टि से गूढ़ रहस्यों का परिचय देता है। कुंभ मेला, घड़ा हुआ मानव शरीर के इस त्रिकोणीय संबंध को समझकर हम उच्चतम सत्य तक पहुंच सकते हैं। एक तरह से कुंभ पर्व न केवल हमें हमारी जड़ों से जोड़ता है बल्कि भविष्य के लिए भी प्रेरित करता है। प्रतीक के रूप में यह हमें सीख देता है कि जिस प्रकार घड़ा अपने भीतर अमृत रूपी जल से परिपूर्ण रहता है उसी प्रकार हमें भी अपने शरीर और आत्मा को शुद्धता प्रेम तथा ज्ञान से भरना चाहिए। ऐसे जो आयोजन होते हैं वह हमें सामाजिक दायित्वों के प्रति जागरुक करते हैं। स्नान के समय जरूरतमंदों को दान करके व्यक्ति जहां अपने मानव होने के दायित्वों का निर्वहन करता है वहीं पर धार्मिक दृष्टि से पुण्य भी अर्जित करता है-
कुंभ काले नरों वस्तु स्नात्वा दद्यात् फलंतुयत्।
तत्फलं दशभिर्मा सैर्यत्र कुम्भों भविष्यति।।
स्वामी विवेकानंद का कहना था कि भारतीय संस्कृति का सार आध्यात्मिकता में है जो मनुष्य के आंतरिक और बाह्य जीवन में संतुलन स्थापित करती है। यह संतुलन योग और ध्यान से आता है। योग और ज्ञान की जो परंपरा है वह हमें शारीरिक और मानसिक संतुलन के साथ-साथ सुदृढ़ता भी प्रदान करती है। भारतीय संस्कृति की इस अमूल्य निधि को देखते हुए आज संपूर्ण विश्व इसे अपनाने में लगा है। कुंभ का पर्व हमें ध्यान और योग का अवलंबन प्रदान करके आत्म साक्षात्कार का एक सुअवसर प्रदान करता है। जो जनमानस देश की सुदूर अंचल में रहते हैं वे इस पर्व पर जब एकजुट होते हैं तो उन्हें साधु संतों की शिविर में इसे व्यावहारिक रूप से अनुभव करने का अवसर मिलता है। भारत सहित विश्व के अन्य देशों से आए हुए श्रद्धांलु इसकी महत्ता को देखते हुए ऐसे आयोजनों में निरंतर शामिल होते रहते हैं।
अतः हम कह सकते हैं कि कुंभ केवल एक धार्मिक आयोजन भर नहीं है बल्कि यह समाज को जोड़ने और सांस्कृतिक धरोहर को सहेजने का साधन है। महर्षि अरविंद ने कहा कि संस्कृति का उद्देश्य आत्मा का विकास और उसके साथ समाज के जीवन का उन्नयन है। उन्होंने इसे एक आध्यात्मिक यात्रा के रूप में देखा है जिसमें व्यक्ति स्वयं के सत्य से तादात्म्य में स्थापित करके जीवन की प्रेरणा ग्रहण करता है। यह पर्व समाज के विभिन्न वर्गों में एकता तथा सामाजंस्य स्थापित करते हुए अनेकता में एकता जैसी सांस्कृतिक उदारता का परिचय देता है।‌इस महापर्व में शामिल होने वाले प्रत्येक श्रद्धालु भारतीय संस्कृति, योग, आयुर्वेद और आध्यात्मिकता के विभिन्न पहलुओं से अवगत होता है। इसके व्यापक उद्देश्य को देखते हैं कुंभ को आस्था और विश्वास का महापर्व कहा जाता है।‌ यह मेला भारतीय धर्म व संस्कृति का अनुपम आयोजन है। यह आयोजन न केवल हमें अपने विरासत से जोड़ता है बल्कि समस्त विश्व के सामने गौरवान्वित करता है।

नीरज कुमार वर्मा नीरप्रिय
किसान सर्वोदय इंटर कालेज रायठ बस्ती (उ.प्र.)
मो -8400088017