रब के सिवा कोई नहीं है इक यतीम का।-जितेंदरपाल सिंह ‘दीप’

 

ग़ज़ल

रक्खे ख़याल कौन यहाँ उसके ड्रीम का,
रब के सिवा कोई नहीं है इक यतीम का।

कब से भटक रही है मेरी रूह दर-ब-दर,
हो जाए मग़्फ़िरत जो करम हो करीम का।

पुरख़ार है गुज़र ये मुहब्बत की जान लो,
बैचैनियाँ मिलेंगी न के पल नईम का।

जब दर्द की दवा ये मुहब्बत हो आपकी,
फिर काम क्या वहाँ पे है आख़िर हकीम का।

जुल्फें खुलीं तुम्हारी तो सब देखने लगे,
आया है किस तरफ़ से ये झोंका शमीम का।

ऐसा न हो अमल पे नदामत हो बाद में,
है तज़रबे का मशवरा तू सुन अज़ीम का।

देता है सबको नूर बिना भेद-भाव के,
दिल ‘दीप’अपना रखता है मिस्ले रहीम का।

जितेंदरपाल सिंह ‘दीप’

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