ख़ुदा का शुक्र सीने में अभी ईमान ज़िंदा है,
इसी ख़ातिर निहत्था आपका दीवान ज़िंदा है।
वो दुश्मन है मगर इस वक़्त वो मेहमान भी तो है,
तभी तो देखिये कि अब तलक मेहमान ज़िंदा है।
गुलाबी कार्ड के हक़दार हम जैसे नही जब कि,
दर-ओ-दीवार पे ग़ुरबत का हर सामान ज़िंदा है।
महल से आ गए फुटपाथ पर फिर भी हमें देखो,
अभी तक है वही तेवर अभी वो शान ज़िंदा है।
चढ़ाओ भोग में तुम देवता को जी में जो आये,
करो न फ़िक्र हरगिज़ जब तलक जजमान ज़िंदा है।
मेरे चेहरे की ज़र्दी मुख़बिरी फ़ाक़ों की करती हो,
मगर चेहरे पे मेरे देख लो मुस्कान ज़िंदा है।
इसे इन्साफ़ कैसे मान ले कोइ नदीमुल्लाह,
प्यादे दार पे हैं और वो हैवान ज़िंदा है।
नदीम अब्बासी “नदीम”
गोरखपुर