भारत जैसे प्रगतिशील और सांस्कृतिक रूप से संवेदनशील देश में, एक बार फिर एक शर्मनाक और अमानवीय घटना ने हमें सोचने पर मजबूर कर दिया है – क्या हम सचमुच 21वीं सदी में हैं?
मामला एक स्कूल का है, जहाँ टॉयलेट में गंदगी की शिकायत पर प्रशासनिक रवैये ने इंसानियत की हदें पार कर दीं। मंगलवार को हुई इस घटना में कक्षा 5वीं से 10वीं तक की छात्राओं को एक पंक्ति में खड़ा कर उनके कपड़े उतरवाए गए — सिर्फ यह देखने के लिए कि उनमें से किसी को माहवारी (पीरियड्स) तो नहीं हो रही।
परिजनों ने जब घर लौटी रोती-बिलखती बच्चियों से यह सुना, तो पूरे इलाके में गुस्से की लहर दौड़ गई। स्कूल में विरोध प्रदर्शन हुआ और प्रशासन से जवाबदेही की माँग की गई।
क्या यह वही भारत है, जहाँ नारी को देवी का स्वरूप माना जाता है?
पीरियड्स कोई गंदगी नहीं, बल्कि प्रकृति की देन है — एक जैविक प्रक्रिया, जिसे समझने और अपनाने की जरूरत है, न कि शर्मिंदगी और सज़ा का कारण बनाने की।
स्कूल प्रशासन द्वारा बच्चियों को दी गई यह मानसिक पीड़ा सिर्फ बाल अधिकारों का नहीं, बल्कि महिला गरिमा का भी सीधा अपमान है। अभिभावकों का कहना है कि बच्चों को गंदगी की तस्वीरें दिखा कर पूछा गया कि क्या इसमें से किसी को माहवारी हो रही है — यह सवाल ही नहीं, यह सोच भी घिनौनी है।
शिक्षा के मंदिरों में ऐसी घटनाएं होना बेहद चिंता का विषय है।
आज स्कूलों में विज्ञान पढ़ाया जा रहा है, हेल्थ एजुकेशन दी जा रही है — लेकिन क्या संवेदना, समझदारी और गरिमा जैसे मूल्यों की शिक्षा सिर्फ किताबों तक सीमित रह गई है?
यह कोई पहली घटना नहीं है। हाल के वर्षों में ऐसे कई मामले सामने आए हैं, जहाँ स्कूलों ने बच्चियों की माहवारी को लेकर अमानवीय व्यवहार किया। यह केवल महिला मुद्दा नहीं, बल्कि एक सामाजिक और नैतिक पतन की ओर इशारा करता है।
अब वक्त है बदलाव का।
जरूरत है कि शिक्षकों को संवेदनशीलता का प्रशिक्षण दिया जाए, माहवारी शिक्षा को अनिवार्य रूप से पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया जाए, और स्कूलों में गरिमा व गोपनीयता सुनिश्चित की जाए। साथ ही, दोषियों पर कड़ी कार्यवाही कर मिसाल कायम की जाए।
हमारी बच्चियाँ सिर्फ छात्राएँ नहीं, हमारे समाज का भविष्य हैं।
उन्हें शर्मिंदगी नहीं, सम्मान चाहिए।
नेहा वार्ष्णेय
दुर्ग छत्तीसगढ़