*दीपदान* गोपाल त्रिपाठी

************
“”दीपदान””
****

हररोज सुबह उषा से ले,
कितने जन दीप जलाते हैं।
अपने स्वार्थों के दिए लिए,
अपनों का अहित मनाते हैं।
ज्ञानी का स्वांग रचाते सब,
पर ज्ञान शब्द का ज्ञान नहीं।
अपनी कुटिया में आग लगा,
अपने हित का ही ध्याननहीं।

क्योंकि भेद नहीं मालूम,
छाया हिय में है स्वार्थ गान।
सदियां बीत गई कितनी,
देखा है प्रतिदिन दीपदान।।1।।

बहनों की इज्जत का क्या है,
घर की लाजें रोती हैं ।
माताएं चिंतातुर हो हो,
पति के पद पद्म भिगोती है।
मांगे सूनी सूनी दिखती,
सिंदूर करोड़ों में बिकता।
पैसों से गांठे खुलती है,
धन ही धनका केवलरिश्ता।।

रत्नों के दीप जला अंधे,
गाते हैं केवल अहम गान।
सदियां बीत गई कितनी,
देखा है प्रतिदिन दीपदान।।2।।

निज हित की दीवार बनी,
भाई का द्रोही भाई है।
बंधुत्व खंजरों में लिपटा,
ममता को आग लगाई है।
रिश्ते नाते निज हित तक ही,
अपने आंचल फैलाते हैं।
ठगने के लिए यहां केवल,
दो गीत प्रेम के गाते हैं।

निज हित में ज्योति बुझा डाली ,
सुन रहा सब जगह द्वेष गान।
सदियां बीत गई कितनी,
देखा है प्रतिदिन दीपदान।।3।।

दरवाज़ों पर खड़ी हुई ,
दानों के बिना क्षुधा रोती।
निर्वस्त्र लाज ढकने खातिर,
लज्जा खुद ही धीरज खोती।
हंस रहे चूस कर बिका रुधिर,
बिकती सुहाग की रातें हैं।
अय्यासी में द्रव्य बहा,
हर संध्या लोरी गाते हैं।

दया विलखती महलों में,
हो रहा भुवन बस निठुर गान।
सदियां बीत गई कितनी,
देखा है प्रतिदिन दीपदान।।4।।

अस्त्र-शस्त्र से सजी हुई ,
हर घर घर की दीवारें हैं।
दीपों के पीछे छुप छुप कर,
जलते नभ के हर तारे हैं।
कफन बिना लाशे चाहें,
अंगारे मिल जांय कहीं।
आह रो रही दब दब कर,
अब तक आंखें खुल सकी नहीं ।

मानवता का वध करके,
गा रहा विश्व बिन हृदय गान।
सदियां बीत गई कितनी,
देखा है प्रतिदिन दीपदान।।5।।

गोपाल त्रिपाठी
शांतिपुरम
प्रयागराज
9889609950

स्वरचित कापीराइट सर्वाधिकार सुरक्षित