उसकी ज़बां में इतना असर है कि निस्फ शब।
वो रोशनी की बात करें और दिया जले।।
तहज़ीब हाफी की यह पंक्ति भाषा की व्यापकता तथा महत्व के विषय में संकेत देती है। निश्चित तौर पर हमारी राष्ट्रभाषा में वह काबिलियत है जो व्यक्ति को न केवल अपने भावों तथा विचारों को अभिव्यक्ति करने की क्षमता प्रदान करती है बल्कि उसे एक तहजीब भी सिखाती है। यह हिंदी भाषा के व्यापक उदारता सहजता ,सरलता व सामंजस्य का सूचक है जो व्यक्ति तथा परिस्थितियों के अनुसार शब्दों के प्रयोग करने की सहज छूट देती है। शब्दों के चयन ही व्यक्ति के संस्कार,आचरण, मेधा तथा संस्कृति को जाहिर कर देते हैं। एक दूसरे के अपनेपन का बोध कराने की क्षमता इस भाषा में इस कदर है कि जहां स्व और पर का भेद मिटकर एकमेव हो जाते हैं। जैसे कबीर दास जब परमात्मा के इतने निकट हो जाते हैं कि दोनों में अंतर करना कठिन हो जाता है। तो उसके लिए वे आप के बजाय तू शब्द का प्रयोग करते हुए लिखते हैं-
तूँ तूँ करता तूँ भया, मुझ मैं रही न हूँ।
वारी फेरी बलि गई, जित देखौं तित तूँ ॥
अपनत्व के साथ-साथ इस भाषा में एक दूसरे को सम्मान तथा आदर देने की परंपरा भी मिलती है । जैसे जब हम किसी के प्रति सम्मान की भावना प्रकट करते हैं तो वहां शब्दों के परिवर्तन के साथ-साथ वाक्य के वचन तक बदलकर उसे जाहिर कर देते हैं। वैश्विक संदर्भ में निगाह दौड़ाये तो अन्य किसी भी भाषा में यह क्षमता नहीं मिलती है।
किसी भी देश की भाषा के साथ-साथ वहां के इतिहास, परंपरा तथा संस्कृति का जुड़ाव होना स्वाभाविक है। हिंदी भाषा की ऐतिहासिक परंपरा संस्कृत, पालि,प्राकृत तथा अपभ्रंश से होते हुए आज इस स्थिति में पहुंची है । विभिन्न बोलियों को अपने परिवार में समेटे हुए तथा प्रत्येक बोली की एक समृद्ध साहित्य होने से इस भाषा की निरंतर श्रीवृद्धि हो रही है। सचमुच ये बोलियां ही हिंदी भाषा के वे आभूषण है जो इसे संवारने का कार्य करती है । ऐसे सुसज्जित, अनुशासित, मर्यादावादी तथा गरिमा पूर्ण भाषा का प्रयोग जो समाज करता है उसके आचरण में अनुशासन आना स्वाभाविक है। यह हिंदी की क्षमता है जो अपने आप को जलाकर समाज को रोशन करने का कार्य करती है। नज़ीर बनारसी ने लिखा है-
अंधेरा माँगने आया था रौशनी की भीख।
हम अपना घर न जलाते तो और क्या करते ।।
हिंदी भाषा की जो यह व्यक्ति तथा समाज को संस्कारित करने की क्षमता थी उसका दिन प्रतिदिन क्षरण होता जा रहा है। इस जीवंतता को निर्जीव बनाने में भाषा की कम तथा हमारी आपकी ज्यादा भूमिका हो सकती है। यदि हम अपनी प्राचीन परंपरा का स्मरण करें तो शिक्षा तथा भाषा का मकसद एक संवेदनशील तथा जागरूक नागरिक का निर्माण करना था। साहित्य तथा भाषा शिक्षण से एक बेहतर मनुष्य की तलाश थी। पर आजकल भाषा तथा साहित्य को सरकार की पहल से कुछ लोगों ने प्रयोजनमूलक बनाने, विज्ञान, तकनीकि तथा बाजार से जोड़ने का इतना प्रयास किया जिसका दूरगामी परिणाम यह निकला कि मनुष्यता का तेजी से पतन हुआ। साहित्य तथा भाषा के प्रति उपयोगिता लोगों के दिलों दिमाग में इतना हावी हो गई है। कि अब हमें लगता है कि पद्मावत, रामचरितमानस, बीजक,मीरा, पलटू,रविदास तथा प्रेमचंद आदि को पढ़कर क्या हासिल होगा? वर्तमान जमाने में यह उचित है कि भाषा तथा साहित्य की पढ़ाई रोजगारोन्मुखी हो। पर उसके वृहद उद्देश्यों को जो महदूद करने की जो नाजायज़ कोशिश की जा रही है वह काफी नुकसानदायक सिद्ध होगी। जो भाषा हमें उड़ने के लिए पंख प्रदान करती है उसे घोंसले के दायरे में न रखा जाए। गोरख पाण्डेय ने लिखा है-
घोंसला बनाने में हम यूँ मशगूल हो गए,
कि उड़ने को पंख भी थे,ये भी भूल गए।
हिंदी भाषा तथा साहित्य के पाठ्यक्रमों में आज यथार्थवादिता के नाम पर नग्न यथार्थ तथा अश्लीलता को परोसा जा रहा है। साहित्य समाज का दर्पण होता है अतः ऐसे में उनमें समाज की सच्चाइयों का बयान किया जाना लाजिमी है। पर हमें सदैव यह ध्यान देने की जरुरत है कि कल्पनाशीलता तथा रागात्मकता के समावेश से भाषा व साहित्य की गुणवत्ता अधिक हो जाती है। सौंदर्यपरकता, मूल्यपरकता तथा भाषाई लगाव ऐसी रचनाओं से बढ़ जाते हैं। जयशंकर प्रसाद की कामायनी, निराला की राम की शक्ति पूजा,जायसी की पद्मावत आदि रचनाओं से पाठक सहज अपना तादात्म्य स्थापित कर लेता है। अतः दोनों का समन्वय ही भाषा तथा साहित्य के समृद्धि का आधार स्तंभ है। निदा फाजली ने लिखा है-
चलो इस तरह से सजाएँ उसे, ये दुनिया हमारी तुम्हारी लगे।
हिंदी भाषा को लेकर विद्यार्थियों में एक सहज कुंठा पाई जाती है। इसे दूर करने के लिए हिंदी भाषा और साहित्य के विद्यार्थी को आत्म सम्मान के साथ दूसरे मानविकी विषयों के साथ खड़ा हो सके इसके लिए उनके पाठ्यक्रमों को अद्यतन बनाने की जरूरत है। हिंदी भाषा के विद्यार्थी में संप्रेषण कौशल तथा समाज विज्ञान जैसे दूसरे विषयों के प्रति गतिशीलता प्रदान किया जाए। विद्यार्थियों तथा शोधार्थियों के मन में भाषा के प्रति स्वाभिमान की भावना विभिन्न प्रकार की गतिविधियों के माध्यम से प्रस्तुत किया जाय। क्योंकि अपनी भाषा उन्नति ही सभी उन्नतियों का मूल है। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने लिखा है-
निज भाषा उन्नति है सब उन्नति का मूल।
बिन निज भाषा ज्ञान के मिटै न हिय का शूल।
यह सही है कि आज के समय में विश्वविद्यालयों ,डिग्री कॉलेजों तथा अन्य संस्थानों में, जो हिंदी भाषा के शिक्षक नियुक्त किए जा रहे हैं उनके पास नेट, जेआरएफ तथा पीएचडी जैसी सम्मानित डिग्रियां होती हैं। पर जब उनके कौशलों जैसे संप्रेषण कौशल, लेखन कौशल तथा समाज और मनुष्य को रिलेट करने की कौशल की परख की जाती है तो अधिकांश में इसका अभाव दिखाई देता है। उन्हें यह ध्यान देने की जरूरत है की भाषा तथा साहित्य प्रयोगशाला में बैठकर प्रयोग करने की चीज नहीं है,बल्कि इसकी प्रयोगशाला तो समाज है। विद्यार्थी भाषिक ज्ञान मेलों, ठेलों, बाजारों तथा सड़कों पर काम करने वाले कामगारों से सीखता है । अतः उन सार्वजनिक स्थानों पर जाना विद्यार्थियों के पाठ्यक्रम का अनिवार्य हिस्सा होना चाहिए जिससे वह व्यक्ति के दुख, दर्द और पीड़ा को देखकर अपनी रचनात्मकता प्रदान कर सके। भाषा साहित्य तथा समाज के इस अलगाव को दूर करके हम बच्चों, विद्यार्थियों तथा शोधार्थियों को संवेदनशील, संस्कारित और अनुशासित बना सकते हैं। ग़ालिब ने लिखा है-
दर्द को दिल में जगह दो ग़ालिब,
सिर्फ इल्म से शायरी नहीं बनती।
अतः हम कह सकते हैं कि मैकाले की अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था के आगमन से ऐसी विडंबना आई जिसका दूरगामी परिणाम आज यह देश झेल रहा है। इसने अपने अंग्रेजी शिक्षा के आवरण में इस तरह से हमें कैद किया कि इससे केवल हमारी भाषा ही अंग्रेजी नहीं हुई अपितु संस्कृति ,सभ्यता तथा आचार विचार सभी से आंग्ल होने की तरफ हम अग्रसर होने लगे। शनै: शनै: हमारा हरा भरा भाषाई वृक्ष सूखने लगा। पर आज आजाद देश के नागरिकों ने अपने सभ्यता तथा संस्कृति रुपी जल से सींचकर इस मुरझाये हुए वृक्ष को पुनः पल्लवित-पुष्पित कर दिये है। इस भाषाई वृक्ष की शाखाएं आज विश्व के कोने-कोने तक विस्तृत हो गई है। इसी का नतीजा है कि हिंदी को विश्व की तीसरी भाषा के रुप में प्रतिष्ठा मिल हुई है। सूचना प्रौद्योगिकी कंपनियां आज मजबूर होकर इस हिंदी भाषा में अपने साफ्टवेयर बना रही है। वैश्विक बाजार में इस भाषा को अहम स्थान प्राप्त है। ऐसे में इस भाषा के प्रति एक सार्वभौमिक लगाव बढ़ता जा रहा है। इस हिंदी भाषा के प्रति असीम लगाव तथा प्रेम प्रत्येक नागरिक को इस दुनियां को बेहतर ढंग से देखने का नजरिया प्रदान करता है। ऐसे परवीन शाकिर का यह शेर बरबस याद आता है-
मुझे तेरी मोहब्बत ने अजब इक रौशनी बख्शी।
मैं इस दुनियां को अब पहले से बेहतर देख सकता हूं।।
नीरज कुमार वर्मा नीरप्रिय
किसान सर्वोदय इंटर कालेज रायठ बस्ती (उ.प्र.)
8400088017