सपनों को ढूंढता हूं – बाल कृष्ण मिश्र

सपनों को ढूंढता हूं”

आंधियों के शहर में,

          इस रात के दोपहर में,

 दीपक जलाने के लिए,

         कोई किरण ढूंढता हूं,

कोई दीप ढूंढता हूं,

          आंधियों के शहर में।।

किसका दयार है ये,

          मैं अंधों के बीच में हूं,

खुद को छुपाने के लिए, 

          कभी आईने बेचता हूं, 

कभी चश्मे परोसता हूं,

          आंधियों के शहर में।।

हवाओं से क्यूं शिकायत,

         क्यों इनको कोसता हूं,

चमन कहां खिलेगा,

         खुशबू कहां से होगी,

जब करील बोता हूं,

           आंधियों के शहर में।।

कृष्ण मैं भी अजीब हूं,

            ज़िद पे अड़ रहा हूं, 

आदमियों के घर में, 

          मोमबत्तियों के सहारे,

 इंसानियत को ढूंढता हूं,

            आंधियों के शहर में।।

धुयें का धुंध है तो क्या,

        जब घर फूंकने को देखो, 

यहां‌ तत्पर तमाम हैं,

          कब आग की किसी से,

यहां यारी कहां हुई है,

           आंधियों के शहर में।।

लपटो को देख कर तब,

            आंखों को मूंद ली थी,

है खतरा वहीं पता था,

          पर कोई खबर नहीं ली,

अब दीप‌क की रोशनी में, 

           मैं अपनों को ढूंढता हूं,

कुछ सपनों को ढूंढता हूं,

           आंधियों के शहर में।।

बाल कृष्ण मिश्र “कृष्ण”

२७-०८-२०२४

बूंदी राजस्थान।।