सावन की रिमझिम ऋतु जबसे आयी है।
तेरी यादों की बदरी ही छायी है।
मगन मयूरा बन के मनवा उड़ जाए।
ऐसी सावन की ऋतु ये हरजाई है।
तेरी सूरत को जबसे देखा मैंने।
सूरत और न कोई मुझको भायी है।
कबसे सोच रही थी कहने को तुझसे।
बात ज़ुबाँ पर आज मिरे वो आयी है।
दुःख सह के सुख जो बांटे सबमे देखो।
मानव धर्म की जिसने रीति निभायी है।
दुःख में सुख में बन जाती परछाईं है।
सीरत तूने रब जैसी ही पायी है।
ज्योतिमा शुक्ला ‘रश्मि’