ग़ज़ल
पर्दा उठे तो गिर न पड़े इज़तेराब में,
बर्के – हिलाल रक़्स करे है नक़ाब में,,
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धरती पे आसमाँ पे समुन्दर के आब में,
तेरा ही ज़िक्र दर्ज है दिल की किताब में,,
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मदहोश कर गया मुझे दीदार का नशा,
इतना असर कहाँ किसी व्हिस्की शराब में,,
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आया नहीं हुज़ूर को बर्दाश्त का हुनर,
टपके हैं जैसे आ गयी हड्डी क़बाब में,,
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आया हुज़ूम बादलों का आज यक ब यक,
“शर्मा के धूप लौट गई आफताब में”,,
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दौलत बढ़ी तो ऐसा अहंकार आ गया,
आदाबो-एहतेराम कहाँ है जनाब में,,
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यादे-कुहन कुछ ऐसी चलीं”अक्स”आजकल
हर रोज आ धमकतीं शबिस्ता में ख्वाब में,,
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✍️अक्स वारसी,,
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