दिल पर तेरे लफ़्ज़ों की चुभन कम नहीं होती-सुशील सिंह पथिक

ग़ज़ल 

आती हुई आँखों से किरन कम नहीं होती
दिल पर तेरे लफ़्ज़ों की चुभन कम नहीं होती

इक बार पहनता है बदन दौर ए अज़ल में
दुनिया में कभी शान ए क़फ़न कम नहीं होती

जिस ओर भी देखों वहीं नफ़रत का धुँवा है
उल्फ़त के चरागों की घुटन कम नहीं होती

इस जिस्म को टुकड़ों में भले काट दो लेकिन
दिल पर लगे ज़ख्मों की जलन कम नहीं होती

मालूम है आएगा मेरी खुशियों का ताज़िर
फिर भी मेरे माथे की शिकन कम नहीं होती

मालूम है मुझको के मैं कम इल्म हूँ लेकिन
कुछ भी हो मेरी काविशे फ़न कम नहीं होती

सब दौड़ते फिरते हैं उसी ओर मुसलसल
बाज़ार की क्यूँ बू ए समन कम नहीं होती

सुशील सिंह पथिक

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