असफलता का भय और आत्महत्या – दीप्ति सक्सेना

कितनी पीड़ाजनक स्थिति है यह  कि जाने कितने घरों की निहारिकाएँ आकाश प्रकाशमान करने की बजाय किसी कृष्ण विवर में धीरे-धीरे विलीन हो जाती हैं । समाज के स्थापित मानकों से संपीडित विद्यार्थी दबाब झेलने में असफल होने पर,अकूत क्षमता रखते  हुए भी, श्रेष्ठता की बाधा दौड़ में पिछड़ने के भय से स्वयं के अस्तित्व से खेल जाते हैं। असफलता का भय जीवन के मूल्य से अधिक प्रमाणित हो रहा है यही कारण है जो व्यावसायिक जीवन में असफलता की धुन्ध चढ़ते ही  विद्यार्थी अपने जीवन का अंत कर रहे हैं।

शिक्षा मंत्रालय के नये दिशा निर्देशों के अंतर्गत सोलह वर्ष से कम आयु के विद्यार्थियों को कोचिंग संस्थानों में प्रवेश हेतु पूर्ण प्रतिबंध लगाया गया है। नियमों के उल्लंघन पर एक लाख रुपये का जुर्माना और कोचिंग संस्थान की मान्यता रद्द करने का निर्णय निश्चय ही स्वागत योग्य है! पड़ताल करेंगे कि आखिर इस की आवश्यकता क्यों हुई?

आज समाज के मूल्यों में आमूल चूल परिवर्तन आ चुका है। धनवान की प्रतिष्ठा सर्वोपरि है। धनवान के साथ ही पद की श्रेष्ठता बौद्धिक स्तर की उत्कृष्टता को सिद्ध करता है। बौद्धिक स्तर की श्रेष्ठता सीधे अनुवांशिकता से जुड़ी है। अतः माता-पिता अपने वंश कुल का मान-अभिमान बनाये रखने का पूरा दायित्व बच्चों के कोमल कन्धों पर डाल देते हैं। बच्चे भी कच्ची उम्र में सामाजिकता सीखने की बजाय सफलता की गॉडविन ऑस्टिन पर चढ़ना चाहते हैं। दिखावे की संस्कृति असुरक्षा की भावना विकसित करती है, लिहाजा धन–पद की धाक से संबंधियों, रिश्तेदारों और समाज को अपने कदमों में रखने की कल्पना पूरी रात को टेबल लैंप से रौशन रखती है। कहीं–कहीं मनचाहे जीवनसाथी के साथ और विलासितापूर्ण जीवन शैली की कामना भी अंधी दौड़ में दौड़ने के लिए प्रेरित करती है।

 

कोचिंग संस्थान तो अब सपनों के सौदागर बन ही चुके हैं। माता-पिता के ऊँचे सपनों को साकार होता दिखाकर उनके मन में आईआईटी, नीट आदि बड़ी परीक्षाओं के आकर्षण के लिए ज्वार पैदा किया जाता है। गारंटीड सिलेक्शन के दावे आँखों पर धूल की परत चढ़ा देते हैं। बच्चों के सुनहरे भविष्य के लिए चिंतित माता-पिता शिकारियों के जाल में फँस जाते हैं। वे मनचाही कीमत अदा करके उज्ज्वल भविष्य को बच्चों के लिए आरक्षित करना चाहते हैं। इस मकड़जाल में गरीब और मध्यवर्गीय परिवार भी सरलता से उलझ जाते हैं। परिणामतः अपनी आकांक्षाओं के अनुरूप ढालने के लिए अपने लाडलों को कैरियर मेकर्स की जलाई गयी भट्टी में झोंक देते हैं।

हिंदुस्तान टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2023 में कोटा राजस्थान में कोचिंग करने आये बुलंदशहर के एक 15 वर्ष के लड़के ने एक महीने के अंदर आत्महत्या कर ली।  एक लड़की ने परीक्षा से पूर्व ही असफलता के भय से  अपने प्राण ले लिए। हो गए न सभी प्रयास सभी सपने धूमिल!! और सोचिए  इन आत्महत्याओं के अलावा, अकेले कोटा में कोचिंग सेंटर्स में पढ़ने वाले दो लाख से ज़्यादा विद्यार्थियों में से जाने कितने अवसादग्रस्त होकर जीवन को मनोविकार के अँधेरे कुएँ में धकेल देते होंगे।

कच्ची उम्र में जब जीवन के गणित का ज्ञान भी नहीं होता देश का भविष्य किस प्रकार से भूल भुलैया में भटक कर नेस्तनाबूद होता जा रहा है,यह देखना बेहद निराशाजनक है। यह एक परिवार, समाज और देश का कितना बड़ा नुकसान है।

उपर्युक्त बिन्दुओं पर दृष्टिपात करने से विदित होता है कि समाज में ढोल बजाने की संस्कृति ने आखिरकार सर्वनाश के द्वार खोल दिए हैं, जिसकी आवाज़ अब पास आने पर कान के पर्दे में छेद कर रही है। बच्चों को बच्चा रहने दें, नैसर्गिकता को बाधित नहीं करना चाहिए। सफलता का मायने बड़ी परीक्षाएँ पास करके बड़े ओहदे पाना ही नहीं होना चाहिए। बड़ी सफलताओं के लिए प्रयास करने से पीछे नहीं हटना चाहिए लेकिन उन्हें हर परिस्थिति के लिए मजबूत होना जरूरी है। लोगों के ताने सुखी जीवन की राह नहीं सुझाते, अपनी क्षमता के अनुसार जीवन जीने की कला का आना ज़्यादा जरूरी है। असफलता में भी धैर्य साधकर संतोष करना सीखना चाहिए। महाकवि तुलसीदास का एक दोहा जीवन का बहुत बड़ा मंत्र है जो कि अनंतकाल प्रासंगिक रहेगा-

 

गो-धन, गज-धन, वाजि-धन और रतन-धन खान।

जब आवत संतोष-धन, सब धन धूरि समान ॥

 

दीप्ति सक्सेना

बदायूँ, उत्तरप्रदेश।

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