““अल्हड़ किशोरी “”
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अधखिली कचनार सी
कोमल कली सी,
नव सुहागिन मूक चितवन
ब्रज लली सी।
मदिरेक्षणा वंकिम नयन
अति चंचला,
प्रियतम अगन है बावरी
अल्हड़ किशोरी।।
मृदुभाव का अभिनव सुमन
सुरभित हुआ,
अंगना भूषित वदन
प्रमुदित हुआ।
कलहंसिनी वातास से
आहट सुनी,
पुरवा पवन ने छेड़ करके
मन छुआ।।
हैं मुखर माथे की बिंदिया
चांद सी,
बह रही सरिता की लहरें
छन्द सी।
उरज में स्पंदन हुआ
सिहरन उठी,
विहंसते मन के निलय में
चन्द सी।।
चांदनी जैसे हो उतरी
झील में,
मदिराभ परिमल गंध के
वश में हुई।
षोडषी अवगुंठिता
मंथर गमन,
प्रणय के अनुराग में
परवश हुई।।
गोपाल त्रिपाठी
शांतिपुरम
प्रयागराज
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