ग़ज़ल
हर एक लम्हा ग़मों की हंसी उड़ाते हुए।
बिता रहा है कोई ज़ीस्त गुनगुनाते हुए।।
फ़रेब दे के सितमगर ने मुस्कुराते हुए
मज़ा लिया है बहुत मुझपे ज़ुल्म ढाते हुए
जब अपने आप से उकता गया है कोई बशर।
चला है मयकदे की ओर लड़खड़ाते हुए
किसी के बारे में अब और सोचना ही नहीं।
सकूं गवाया है रिश्तो को बस निभाते हुए।।
बिछड़ना मिलना मुकद्दर का खेल है यारों।
मगर वो रोने लगे दूर मुझसे जाते हुए।।
हयात गुज़री ग़मों के हिसार में हर्षित।
सहे हैं ज़ख़्म कलेजे पे मुस्कुराते हुए।।
विनोद उपाध्याय हर्षित