अनुराग लक्ष्य, 10 सितंबर,
समायीन आप यकीन मानें कि ग़ालिब, मीर, फ़ैज़, दाग़ और फिराक गोरखपुरी से होती हुई शायरी जो मेरी दहलीज़ तक पहुंची, उससे मैंने बेपनाह मुहब्बत की, और यह आज उसी की देन है कि मैं हिंदुस्तान की मायेनाज हस्तियों के बीच खड़े होकर कुछ कहने और सुनाने की जसारत करता हूं। आज एक लंबे अरसे बाद अपने संपादक जनाब विनोद कुमार उपाध्याय के आग्रह पर एक ग़ज़ल आपकी समा अतों के हवाले कर रहा हूं, समाद फरमाएं।
1/ अब कहां प्यार ओ मुहब्बत को जताता है कोई
अब कहां प्यार में रोता है और गाता है कोई ।
2/ जिसकी देखो वही बेज़ार नज़र आता है
हौसला कौन यहां किसका बढ़ाता है कोई ।
3/ कभी गुल तो कभी तोहफ़े में दिन गुज़रते थे
अब कहां रस्म ए मुहब्बत को निभाता है कोई ।
4/ दिल के दरवाज़े सभी बंद हुए हों जैसे
अब कहां चांदनी रातों में नहाता है कोई ।
5/ दौर ए हाज़िर में ,सलीम, हम भी तो सब भूल गए
अब कहां खोवाब मुहब्बत के सजाता है कोई।
,,,,,,,सलीम बस्तवी अज़ीज़ी,,,,,,,