🪔 धनतेरस- सोने–चाँदी से ज़्यादा, दिल की रोशनी ज़रूरी है
✍️ लेखिका: नेहा वार्ष्णेय
हर वर्ष कार्तिक कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी को धनतेरस का पर्व आता है। लोग इस दिन सोना, चाँदी, बर्तन या नई वस्तुएँ खरीदते हैं। कहा जाता है कि इस दिन खरीदी गई वस्तु में लक्ष्मी का वास होता है। परंतु क्या सचमुच “धनतेरस” केवल खरीददारी का पर्व है?
धर्मग्रंथों के अनुसार, धनतेरस के दिन धन्वंतरि भगवान समुद्र मंथन से अमृत कलश लेकर प्रकट हुए थे। वे आयुर्वेद के देवता हैं — अर्थात् यह दिन स्वास्थ्य, दीर्घायु और संतुलित जीवन का प्रतीक है।
पर आज के कलियुग में धनतेरस केवल बाजार का त्योहार बनकर रह गया है। चमक–दमक, डिस्काउंट और सेल में हमने असली “धन” को भुला दिया — स्वास्थ्य, सद्भाव और संतोष।
कहा गया है —
> “धन से नहीं, मन से होती है समृद्धि।”
लियुग में जहाँ मनुष्य धन की दौड़ में दिन-रात भाग रहा है, वहीं मन की शांति उससे कोसों दूर होती जा रही है। भगवान धन्वंतरि ने हमें सिखाया था कि शरीर स्वस्थ रहे तो ही जीवन सुखी रहेगा, क्योंकि स्वास्थ्य ही सबसे बड़ा धन है।
आज आवश्यकता है कि हम धनतेरस पर सोना-चाँदी नहीं, बल्कि सद्भावना, करुणा, और आत्मसंयम खरीदें। दीप जलाएँ, पर सबसे पहले अपने भीतर की अंधकार को मिटाएँ।
इस धनतेरस पर एक व्रत लें —
“हम अपने परिवार के साथ समय बिताएँगे,
अपने शरीर और मन का ध्यान रखेंगे,
और दूसरों के जीवन में भी थोड़ी सी रोशनी बाँटेंगे।”
क्योंकि कलियुग का असली दीपक वो नहीं जो मिट्टी का हो, बल्कि वो है जो हृदय में प्रेम, कृतज्ञता और धर्म का प्रकाश जलाए।
संदेश:
धनतेरस का अर्थ केवल धन की प्राप्ति नहीं, बल्कि धर्म, ध्यान और दया का संचार है। तभी हमारे जीवन में सच्ची लक्ष्मी — शांति और स्वास्थ्य का वास होगा।