_कैसे नहीं सुनेगा वो, सरदार ही तो है,_
_झुकना पड़ेगा एक दिन, सरकार ही तो है।_
_सर से उतर के मेरे तेरे सर पे आ गई,_
_फितरत है इस की क्या करें दस्तार ही तो है।_
_क्यों बदहवास इस तरह दिल्ली है आप की,_
_लब पर हमारे जुर्रते इंकार ही तो है।_
_क्या बात है कि आज बड़े मूड में है आप,_
_इस दिन नया सा क्या है, बस इतवार ही तो है।_
_दोनों फरीक़ जिस घड़ी तैय्यार हो गये,_
_गिरने में इस के क्या है,ये दीवार ही तो है।_
_कल तक था मेरे हक़ में मगर अब ख़िलाफ़ है,_
_फिर हक़ में मेरे लिख्खेगा अखबार ही तो है।_
_क्यों इस तरह से कांप रहे हैं नदीम आप,_
_ये बादशाहे वक़्त का दरबार ही तो है।_
*नदीम अब्बासी “नदीम”*
*गोरखपुर।।*