लिपटे, लिपटे, जिस्म से चादर पुरानी हो गयी,
गहरे नीले रंग से वो आसमानी हो गयी।
जिस के दम से रौनक़ें थी कल तलक कोठों पे,वो,
जिस घड़ी कोठी में आयी खानदानी हो गयी।
अकबर-ओ-बाबर निज़ामुद्दीन की दिल्ली थी जो,
देखिए वो आज किसी की राजधानी हो गयी।
वो भी मुद्दा बन गयी अब राजनीति के लिए,
जब सुना गंगा ने तो वो पानी पानी हो गयी।
जब महज़ रोटी की खातिर बिक गया एक हुस्न फिर,
ज़हन में महफ़ूज़ मेरे इक कहानी हो गयी।
जो सज़ा के मुस्तहक़ थे देखिये उन को ज़रा,
आज दिल्ली में उन्हीं की हुक्मरानी हो गयी।
ऐरे ग़ैरे तक लगे पर तोलने मुझ पर नदीम,
आप को मुझ से जो थोड़ी बदगुमानी हो गयी।
नदीम अब्बासी “नदीम”
गोरखपुर