अनुराग लक्ष्य, 23 जनवरी
सलीम बस्तवी अज़ीज़ी,
मुम्बई संवाददाता ।
यह दृश्य जो आप देख रहे हैं, यह मुंबई के किसी व्यस्त बाज़ार या शॉपिंग मॉल का नहीं है। बल्कि यह धारावी के ट्रांजिस्ट कैंप के दिहाड़ी मजदूरों का है। जिनके सम्मान में मैं सलीम बस्तवी अज़ीज़ी आज अपनी इन चार पंक्तियों से इस समाचार का आगाज़ कर रहा हूं,
,,,,कभी ज़माने में ऐसा भी कोई यार मिले
वफ़ा के नाम पर हर रोज़ उससे प्यार मिले
गरीब मैं सही मेरा शहर न गरीब रहे
हमारे हाथों को कोई ऐसा कारोबार मिले,,,,,
ज़माना कहां से कहां पहुंच गया लेकिन दिहाड़ी मजदूरों की ज़िन्दगी में आज भी कोई बदलाव नहीं आया, सरकारें आती हैं, जाती हैं, लेकिन दिहाड़ी मजदूरों की ज़िन्दगी में आज भी कोई तब्दीली नहीं आई। वोह आज भी उसी भीड़ का हिस्सा बने हुए हैं। रोज़ कुआं खोदना और रोज़ पानी पीना। शायद यही उनका मुकद्दर है। और इसी नसीब के साथ उन्हें इस दुनिया से कूच भी कर जाना है।
देश में दावे तो बड़े बड़े होते हैं लेकिन हकीकतों से रूबरू कराने वाले रहबर और सामाजिक कार्यकर्ता और संस्थाएं ऐसे दिहाड़ी मजदूरों के जीवन को लेकर उत्थान और उनके विकास की बात कोई नहीं करता। जिसका परिणाम कभी कभी मेरी इन चार पंक्तियों में दिखाई देता है, कि,,,
,,,,,, कुछ फूल भी ऐसे हुए जो खार हो गए
सस्ते कभी मंहगे यहां बाज़ार हो गए
तंग आ गए लड़ते हुए बेकारियो से जब
न चाहते हुए भी गुनहगार हो गए,,,