श्रवण मास में करें वैदिक शास्त्रों का श्रवण- गरुड़ध्वज पांडेय

श्रावणी पर्व का भारतीय समाज में विशेष महत्व है।इस श्रावणी उपाकर्म के अंतर्गत वेदों के श्रवण-मनन का विशेष महत्व है। प्राचीन काल में लोग श्रावण मास में वर्षा के कारण अवकाश रखते थे तथा घरों पर रहकर वैदिक शास्त्रों का श्रवण किया करते करते थे। अपने आध्यात्मिक ज्ञान को बढ़ाते थे।
भारत वर्षा बहुल तथा कृषि प्रधान देश है। यहां की जनता आषाढ़ और श्रावण में कृषि के कार्यों में विशेषतः व्यस्त रहती है। श्रावणी (सावनी) शस्य की जुताई और बुवाई आषाढ़ से प्रारम्भ होकर श्रावण के अन्त तक समाप्त हो जाती है। इस समय श्रावण पूर्णिमा पर ग्रामीण जनता कृषि के कार्यों से निवृत्ति पाकर तथा भावी शस्य के आगमन से आशान्वित होकर चित्त की शान्ति और अवकाश लाभ करती है। क्षत्रियवर्ग भी इस समय दिग्विजय यात्रा से विरत हो जाता है। वैश्य भी व्यापार, यात्रा, वाणिज्य और कृषि से विश्राम पाते हैं। इसलिए इस दीर्घ अवकाश-काल में विशेष रूप से वेद के पारायण और प्रवचन में जनता प्रवृत्त होती थी। उधर ऋषि-मुनियों, संन्यासी और महात्मा लोग भी वर्षा के कारण अरण्य और वनस्थली को छोड़कर ग्रामों के निकट आकर अपना चातुर्मास्य बिताते थे। श्रद्धालु श्रोता और वेदाध्यायी लोग उनके पास रहकर ज्ञान श्रवण और वेद पाठ से अपने समय को सफल बनाते थे और ऋषियों के इस प्रिय कार्य से ऋषियों का तर्पण मनाते थे। जिस दिन से इस विशेष वेद पारायण का उपक्रम (प्रारम्भ) किया जाता था, उस को उपाकर्म कहते थे। ऋषियों का तृप्तिकारक होने के कारण पीछे से उपाकर्म का नाम ऋषितर्पण भी पड़ गया। प्राचीन काल में गुरुकुलों में इसी दिन से शिक्षण सत्र का आरंभ होता था। इस पर्व पर कीट पतंगों और बीमारी फैलाने वाले कीटाणुओं के नाश के लिए बड़े-बड़े यज्ञ का आयोजन किया जाता था। इस प्रकार पूरी सृष्टि के लिए एक वरदान था आज भारतीय जनमानस इस इस परंपरा का निर्वहन कर रहा है।

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